सेन्सस 2011 की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में नेत्रहीनों की आबादी लगभग 5.49 लाख है. लेकिन बिहार में एक भी कानून या नियम ऐसा नहीं है जो नेत्रहीनों के अनुकूल हो. बिहार में नेत्रहीनों के लिए शिक्षा, रोज़गार, सामाजिक सुरक्षा आदि जैसे विषयों पर या तो कानून ही नहीं है और अगर है भी तो उसका पालन नहीं हो रहा है.
बिहार में साढ़े पांच लाख की आबादी पर नेत्रहीनों के लिए सिर्फ़ 3 स्कूल ही बनाये गए हैं जो पटना, भागलपुर और दरभंगा में मौजूद हैं. इसमें से पटना और दरभंगा में उच्च विद्यालय मौजूद है और भागलपुर में मध्य विद्यालय. इन तीनों स्कूल में अधिकांश 170 बच्चे ही पढ़ाई कर सकते हैं, जबकि नेत्रहीन छात्रों की संख्या इससे कई गुना ज़्यादा है. उसमें भी इन तीन स्कूलों की स्थिति हर लिहाज़ से बदत्तर है. इन स्कूलों में ना शिक्षकों की उचित संख्या मौजूद है और ना ही नेत्रहीन छात्रों के लिए किसी तरह की कोई सुविधा उपलब्ध है. दरभंगा नेत्रहीन विद्यालय में सिर्फ़ 2 शिक्षक मौजूद हैं जिनमें से एक शिक्षक नेत्रहीन हैं. भागलपुर नेत्रहीन मध्य विद्यालय में सिर्फ़ एक शिक्षक मौजूद हैं.
हम नेत्रहीन लोग हैं. सरकार के लिए हम वोट बैंक नहीं हैं. इस वजह से नेत्रहीनों के प्रति सरकार असंवेदनशील रवैय्या अपना रही है. हमारे पढ़ाई के हर मुमकिन रास्ते को सरकार ने बंद कर दिया है. हमारी किताब भी छपवाना सरकार के लिए बहुत बड़ा पहाड़ जैसा काम लगता है. ऐसे में हम कहां जायें?
विजय भास्कर, ब्रेल इंस्टिट्यूट रिसर्च एंड ट्रेनिंग
बिहार में नेत्रहीन छात्रों की पढ़ाई के लिए एक ब्रेल प्रेस भी मौजूद नहीं है. बिहार-झारखंड बंटवारे से पहले राज्य में एक ब्रेल प्रेस की शुरुआत करने की घोषणा की गयी थी और उसके लिए धनबाद में भवन भी तैयार कर किया गया था. लेकिन उस भवन में प्रेस की जगह पुलिस कैंप लगा दिया गया.
पटना नेत्रहीन स्कूल में सिर्फ़ प्रिंसिपल सहित सिर्फ़ 3 शिक्षक मौजूद हैं. इस स्कूल में 68 बच्चे पढ़ते हैं. सोनू कुमार, छठी क्लास के छात्र हैं और पटना नेत्रहीन स्कूल में पढ़ाई करते हैं. सोनू कुमार के पिता पेशे से मज़दूर हैं. सोनू कुमार को ये उम्मीद है कि एक दिन वो अपनी पढ़ाई पूरी करके सरकारी नौकरी पायेंगे और घर की आर्थिक स्थिति को मज़बूत करेंगे. लेकिन सोनू कुमार के सपने टूटने शुरू हो जाते हैं जब उन्हें स्कूल में किसी भी तरह की कोई सुविधा नहीं मिलती है.
सोनू कुमार बताते हैं-
“हमारे स्कूल में सिर्फ़ 2 टीचर मौजूद हैं जो क्लास 1 से लेकर 12 तक के छात्रों को पढ़ाते हैं. अब आप ख़ुद सोचिये कि 2 शिक्षक मिलकर 12 क्लास को कैसे पढ़ा पायेंगे. इसके अलावा जो हमारे ज़रूरत की किताबें और कंप्यूटर भी मौजूद नहीं हैं. एक बार बेल्ट्रोन की ओर से नेत्रहीन छात्रों के लिए कंप्यूटर भी प्रदान किया गया था लेकिन फिर पता ही नहीं चला कि वो कंप्यूटर गए कहां.”
बिहार में नेत्रहीन छात्राओं की स्थिति इससे भी अधिक ख़राब है. बिहार और झारखंड में नेत्रहीन छात्राओं की पढ़ाई के लिए एक भी सरकारी स्कूल मौजूद ही नहीं है. शायद सरकार की नज़र में नेत्रहीन छात्राओं को पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं है. बिहार में नेत्रहीन छात्राओं की पढ़ाई के लिए सिर्फ़ एक NGO द्वारा संचालित स्कूल मौजूद है. यहां पर 110 छात्राओं के रहने और पढ़ाई की व्यवस्था मौजूद है.
लेकिन इस स्कूल को भी आज तक किसी भी तरह से सरकारी अनुदान या मदद नहीं मिली है. इस स्कूल में बच्चियों के रहने-खाने और पढ़ाई की व्यवस्था जनता के चंदे से की जाती है. बिहार नेत्रहीन परिषद् के महासचिव और अंतर्ज्योति बालिका विद्यालय के संस्थापक सदस्य विजय कुमार बताते हैं:-
“ये बहुत दुःख की बात है कि बिहार में इतने प्रयासों के बाद भी आज तक बच्चियों के लिए आज तक सरकारी स्कूल नहीं शुरू हो पाया है. आज़ादी के बाद से आज तक इतनी बैठक, पत्र और आन्दोलनों का सरकार पर कोई असर नहीं हुआ. आखिर में हमारी संस्था ने ये फ़ैसला लिया कि हम आम जनता के बीच जायेंगे और उनके चंदे से नेत्रहीन बच्चियों के लिए एक गैर-सरकारी स्कूल शुरू करेंगे. बच्चियों के खाने से लेकर उनकी किताबें और पढ़ाई से सम्बंधित सभी चीज़ चंदे से ही व्यवस्था की जाती है.”
बिहार में नेत्रहीन छात्रों की दयनीय स्थिति सिर्फ़ स्कूल तक नहीं बल्कि विश्वविद्यालय में भी व्याप्त है. बिहार की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी, पटना यूनिवर्सिटी में भी नेत्रहीन छात्रों के लिए किसी भी तरह की कोई सुविधा ही नहीं उपलब्ध नहीं है. पटना यूनिवर्सिटी में नेत्रहीन छात्रों के लिए एक स्पेशल हॉस्टल, मिन्टो ब्लाइंड हॉस्टल, है. लेकिन इस हॉस्टल में कुछ भी स्पेशल नहीं है. यहां तक की गाइडलाइन्स के अनुसार इस हॉस्टल में केयरटेकर और रसोइया की सुविधा होनी चाहिए जो नेत्रहीन छात्रों की मदद कर सकें. लेकिन इस हॉस्टल में ये सुविधा भी उपलब्ध नहीं है.
पटना यूनिवर्सिटी में 45 नेत्रहीन छात्र पढ़ाई करते हैं. इनकी पढ़ाई के लिए यूनिवर्सिटी की ओर से क्लासरूम में रिकॉर्डर या टॉकिंग लाइब्रेरी की सुविधा मुहैय्या नहीं करवाई गयी है. आफ़ताब आलम इसी ब्लाइंड हॉस्टल के एक छात्र हैं और हिंदी में एम.ए. की पढ़ाई कर रहे हैं. आफ़ताब आलम डेमोक्रेटिक चरखा से बात करते हुए बताते हैं कि…
“हमलोगों के लिए यहां पर ब्रेल लिपि में किताबें मौजूद नहीं हैं. जो भी शिक्षक पढ़ाते हैं हमलोग उन्हीं को सुन कर याद रखने की कोशिश करते हैं. जितना याद रहता है उसी से एग्जाम देते हैं. नियम के अनुसार जितने भी ब्लाइंड स्टूडेंट्स हैं उन्हें यूनिवर्सिटी को एक रिकॉर्डर देना चाहिए ताकि वो क्लास को रिकॉर्ड कर सकें और बाद में पढ़ सकें. लेकिन यूनिवर्सिटी हमें रिकॉर्डर की सुविधा नहीं देती है. इसका असर हमारे मार्क्स पर पड़ता है. मुश्किल से हमलोग बस पास हो पाते हैं. इस वजह से कई छात्र पहले-दूसरे साल में ही निराश होकर पढ़ाई छोड़ देते हैं. कई बार हमलोगों ने विश्वविद्यालय प्रशासन से ब्रेल किताबों की कमी के बारे में बात की लेकिन प्रशासन हमेशा आज-कल करके मामला टालते रहे हैं.”
ब्रेल लिपि की किताब और संसाधन की कमी के बारे में जानकारी के लिए डेमोक्रेटिक चरखा की टीम ने डीन ऑफ़ स्टूडेंट्स वेलफेयर से बातचीत की. हालांकि उन्होंने ये मामला लाइब्रेरियन के अंतर्गत होने के कारण इसपर टिप्पणी नहीं की. उसके बाद डेमोक्रेटिक चरखा की टीम ने पटना यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी के असिस्टेंट लाइब्रेरियन अशोक कुमार (असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, साइंस कॉलेज) से बातचीत की. अशोक कुमार ने बताया
“कुछ वक़्त पहले हमलोगों ने 2 कंप्यूटर सिस्टम नेत्रहीन छात्रों के लिए बनाया है और ब्रेल लिपि की किताबें भी मंगवाई हैं. लेकिन इन किताबों तक नेत्रहीन छात्रों की पहुंच नहीं है. इसमें गलती प्रशासन और छात्र दोनों की है. हमने अपनी बात सही से छात्रों की बीच नहीं पहुंचाई और ये जानकारी नहीं दी कि ब्रेल किताबें और कंप्यूटर की सुविधा उपलब्ध है. हम उम्मीद करते हैं कि डेमोक्रेटिक चरखा के माध्यम से हम अपनी बात छात्रों तक पहुंचा पायेंगे कि जितने भी नेत्रहीन छात्र यूनिवर्सिटी में मौजूद हैं वो लाइब्रेरी आकर रिसोर्स का लाभ ले सकते हैं. अगर उन्हें कुछ और किताबों की भी ज़रूरत होगी तो हम वो किताब भी मंगवाने के लिए तैयार हैं.”
पटना यूनिवर्सिटी में सिर्फ़ संसधानों के स्तर पर ही नेत्रहीन छात्रों की दुश्वारी नहीं बढ़ रही है बल्कि नामांकन में भी काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. दिव्यांग व्यक्तियों के लिए हर सरकारी संस्थान, चाहे वो यूनिवर्सिटी हो या सरकारी दफ़्तर, उसमें 4% आरक्षण का प्रावधान है. पहले ये 3% था लेकिन उसके बाद साल 2016 में इसे बढ़ा कर 4% कर दिया गया. लेकिन बिहार में किसी भी सरकारी संस्थान में इस आरक्षण रोस्टर का पालन नहीं किया जा रहा है. यूनिवर्सिटी में भी आरक्षण रोस्टर का पालन नहीं हो रहा है. किसी भी लिस्ट में दिव्यांग व्यक्तियों के लिए आरक्षित सूची नहीं प्रकाशित की गयी है. ठीक उसी तरह से सरकार नौकरियों की भर्ती में भी इस आरक्षण रोस्टर का पालन नहीं किया जा रहा है. साल 2014 में बिहार कर्मचारी चयन आयोग ने सरकारी पदों पर नियुक्ति के लिए परीक्षा ली थी.
6 साल के बाद साल 2020 में BSSC का रिजल्ट प्रकाशित भी किया गया तो उसमें दिव्यांग आरक्षण को ताक पर रख दिया गया. उस समय दिव्यांग आरक्षण 3% था. उस हिसाब से 372 सीट पर दिव्यांग व्यक्तियों की भर्ती होनी थी लेकिन BSSC ने इन सीट पर भर्ती की ही नहीं. आदित्य तिवारी एक दृष्टिहीन छात्र हैं जिन्होंने BSSC की परीक्षा दी थी और उसकी मेंस परीक्षा में सफ़ल भी हुए थे. लेकिन उसके बाद उनका रिजल्ट ही नहीं दिया गया.
आदित्य बताते हैं-
BSSC ने दो नियम को माना ही नहीं. पहला तो है आरक्षण, दूसरा है कंप्यूटर टेस्ट. जो भी पास छात्र थे उनकी कंप्यूटर पर टाइपिंग की परीक्षा होनी थी. बिहार सरकार ने ख़ुद ही नोटिफिकेशन जारी किया था कि जितने भी दृष्टिहीन छात्र हैं उनकी ये परीक्षा नहीं ली जायेगी. अरे हमको दिखाई ही नहीं देता है तो हम कंप्यूटर पर क्या टाइप करेंगे? लेकिन फिर भी आयोग ने ये परीक्षा ली और आज देखिये हम सभी लोगों का रिजल्ट नहीं दिया गया. आयोग के पास शिकायत लेकर जा रहे हैं तो वो सिर्फ़ इधर-उधर में टहला रहे हैं. मीडिया हमारी बात लिख नहीं रही क्योंकि उससे उनके सब्सक्राइबर नहीं बढ़ेंगे. हमलोग किधर जायें कुछ समझ भी नहीं आ रहा.
डेमोक्रेटिक चरखा की टीम ने आयोग के अध्यक्ष से बात की तो उन्होंने ये आश्वासन दिया कि वो जल्द ही इस मामले को संज्ञान में लेते हुए कारवाई करेंगे.
साल 2014 में ही शिक्षकों की भर्ती के लिए भी बिहार सरकार ने परीक्षा ली थी. उसमें भी आरक्षण के नियम को नहीं माना गया था जिसके बाद नेशनल फेडरेशन ऑफ़ ब्लाइंड ने पटना हाईकोर्ट में इस रिजल्ट के ख़िलाफ़ याचिका दायर की थी. अभी तक इस मामले में कोई फ़ैसला नहीं आया है.
(लेखक दृष्टिहीन और पटना यूनिवर्सिटी के छात्र हैं. ये रिपोर्ट उन्होंने डिक्टेशन की मदद से लिखी है)
यह लेख पहले डेमोक्रेटिक चरखा में प्रकाशित हुआ है