सबका अपना फैन मोमेंट होता होगा, मेरे लिए वो वक्त तब था जब मैं राजेश जोशी से मिली। अपने चहेते कवि से मिलने और इतने इत्मीनान से बातें करने से ज़्यादा सुंदर भला क्या होगा।
बनावटी होते जा रहे समय में यह सहजता दुर्लभ है। आपका बड़प्पन किसी को भयाक्रांत कर ही नहीं सकता और यदि ऐसी कोई चाहना आपके भीतर है तो बड़प्पन से कोसों दूर हैं आप अभी! यह मानना और पुख्ता हुआ राजेश जोशी से मिलकर।
अजीब से गुरुर में जी रहे लोगों वाले मुश्किल समय में राजेश जोशी से मिलना कितना सरल, कितना सहज, कितना पारदर्शी था।
कला का दायित्व चूंकि जीवन और समाज के प्रति होता है और इस लिहाज़ से राजेश जोशी की कविताएं अपने कहन में काफ़ी सजग व सचेत हैं । जीवन में मनुष्यता को बचाए रखने या फिर इसे यों कहें कि जीवन में जीवन को बचाए रखने के आकांक्षी राजेश जोशी अपनी कविताओं में समय व सत्ता से संघर्ष करते हुए भी अपनी इस आकांक्षा को कभी नहीं छोड़ते।
उनकी राजनीतिक कविताएं अपने कथ्य की गंभीरता के साथ साथ शिल्प की बारीकी का नमूना हैं। उनकी कविताओं में हमें बहुत सारी स्मृतियां, जीवन के बहुत सारे प्रसंग मिल जाएंगे। ‘एक दिन बोलेंगे पेड़’, ‘मिट्टी का चेहरा’, ‘नेपथ्य में हँसी’, ‘दो पंक्तियों के बीच’, ‘ज़िद’ और ‘उल्लंघन’ उनके काव्य-संग्रह हैं। ‘गेंद निराली मिट्ठू की’ नाम से बाल कविताओं का भी एक संग्रह प्रकाशित हुआ है।
मौलिक रचनाओं के साथ-साथ राजेश जोशी ने दूसरी भाषाओं की महत्वपूर्ण कविताओं का अनुवाद भी किया है। उन्होंने भर्तृहरि की कविताओं की अनुरचना ‘भूमि का कल्पतरु यह भी’ शीर्षक से और मायकोव्स्की की कविताओं का अनुवाद ‘पतलून पहिना बादल’ शीर्षक से किया है। उनकी खुद की कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। कविताओं से इतर राजेश जोशी ने रचनात्मक व विचारात्मक गद्य भी लिखे हैं। उनके दो कहानी-संग्रह ‘सोमवार और अन्य कहानियाँ’ और ‘कपिल का पेड़’ छप चुके हैं। ‘जादू जंगल’, ‘अच्छे आदमी’, ‘कहन कबीर’, ‘टंकारा का गाना’, ‘तुक्के पर तुक्का’ उनकी नाट्य-कृतियाँ हैं। ‘एक कवि की नोटबुक’ और ‘एक कवि की दूसरी नोटबुक’ के रूप में आलोचनात्मक टिप्पणियों की दो किताबें प्रकाशित हुई हैं। ‘अब तक सब’ नाम से उनके नाटकों का संकलन प्रकाशित हुआ है। राजेश जोशी ने कुछ लघु फ़िल्मों के लिए पटकथाएँ भी लिखी हैं।
अपनी रचना प्रक्रिया व कविताओं के सरोकारों पर बात करते हुए राजेश जोशी स्वयं कहते हैं;
… इस समय के अंतर्विरोधों व विडंबनाओं को व्यक्त करने और प्रतिरोध के नए उपकरण तलाश करने की बेचैनी हमारी पूरी कविता की मुख्य चिंता है! उसमें कई बार निराशा भी हाथ लगती है और उदासी भी लेकिन साधारण जन के पास जो सबसे बड़ी ताकत है और जिसे कोई बड़ी से बड़ी वर्चस्वशाली शक्ति और बड़ी से बड़ी असफलता भी उससे छीन नहीं सकती, वह है उसकी ज़िद!
आइए, आज इस प्रतिबद्ध और बेहद ज़रूरी कवि राजेश जोशी से भाषा, साहित्य, समाज, जीवन पर विस्तार से और पूरी सहजता से हुई बातचीत पढ़ते हैं। इस बातचीत में भी आप वो प्रतिबद्धता और सहजता पाएंगे, जो दुर्लभ है परंतु जिसकी दरकार हम सभी को है।
कविता या साहित्य क्यों ज़रूरी है?
कविता तो एक ऐसी विधा है जो साहित्य की मूल विधा है। शुरुआत में तो सारी चीजें कविता में ही लिखी जाती थी। कथा भी कविताओं के ज़रिए लिखी जाती थी। नाटक भी कविता में लिखे जाते थे। कविता एक ऐसी मूल विधा है, जिसमें सारा साहित्य कर्म शामिल हैं। किसी भी समाज को अपने को अभिव्यक्त करने के लिए एक ज़रिया तो चाहिए ही। वैसे भी सबके हित की विधा साहित्य है। सबके हित की बात करने का माध्यम कविता थी। बाद में, विकास क्रम में साहित्य की अन्य विधाएं बनीं।
कविता को करने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ क्या है?
वैसे तो यह नहीं बताया जा सकता क्योंकि लोग न जाने कितनी तरह से कविता के बारे में सोचते हैं। भाववादी दर्शन यह कहता है कि कविता कहीं अंदर से जन्म लेती है, स्वयंस्फूर्त का सिद्धांत उन्हीं का है। वैसे बुनियादी तौर पर ऐसा होता तो नहीं है।
मुझे लगता है आप जैसे जैसे अपने अनुभवों की तरफ जाएंगे, कविता लिखने के पूर्व के जितने अनुभव हैं, आप जब उनकी तरफ लौटेंगे तो आपको अवचेतन में ऐसी बहुत सारी बातें मिलेंगी जिन्हें आपने किसी से कहा नहीं है पर कहीं न कहीं आप उसे कहने की इच्छा रखते हैं। जैसे ही आप उन क्षणों के पास जाएंगे तो वो अचानक कौंधेगी। जैसे मुक्तिबोध ने ‘रचना के तीन क्षण’ में बताया है कि पहला क्षण अचानक कौंधता है। अचानक कौंधता वही है जो आपके अवचेतन में पड़ा हुआ है और जिसे आपने किसी से कहा नहीं है। ऐसे किसी अनुभव को जब आप छुएंगे तो वह आपको झंकृत करेगा। अब समस्या यही कि आप उसे कविता में व्यक्त करते हैं या कहानी में व्यक्त करते हैं।
आपने किस विधा को चुना है या किस विधा ने आपको चुना है, यह भी महत्त्वपूर्ण है। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं कवि बनूँगा। मैं चित्रकार बनना चाहता था, फिर मुझे एक कहानीकार दोस्त मिले तो उन्होंने कहानी लिखने की बात की, उसके बाद मैं कविता की तरफ आ गया। कई दफा विधा भी आपको चुन लेती है आपके स्वभाव के हिसाब से। विधा और आपके बीच एक रिश्ता बनता है। और फिर तब आप उस विधा में मूलतः काम करने लगते हैं बेशक आप अन्य विधाओं में भी काम कर रहे हों।
जैसे जैसे आप अपने अनुभवों के पास जाएंगे, अपने सामाजिक परिदृश्य को देखेंगे, उससे संवाद करेंगे तो उस टकराव से बहुत सारी चीजें उत्पन्न होंगी। उस टकराव से जो ऊर्जा पैदा होती है उससे रचना बनती है।
कविता या समग्र रूप से साहित्य एक क्राफ्ट भी तो है, उसकी तैयारी कैसे की जाए?
क्राफ्ट की तैयारी तो बिल्कुल करनी ही पड़ेगी। जब आप एक विधा चुन लेते हैं, तो फिर विधा का अनुशासन होगा। यह ज़रूरी नहीं कि उसका कोई एक ही क्राफ्ट हो, उसके बहुत सारे क्राफ्ट हो सकते हैं । हर व्यक्ति अपने ढंग से क्राफ्ट तैयार करता है। भाषा वैसे तो एक सामाजिक संपत्ति है पर आप उसमे से चुनते हैं। आप अपने ज्ञान, अपनी शब्दावली, अपने सीखे हुए से चुनाव करते हैं, आप अपनी भाषा भी चुनते हैं।
कुछ लोग पूरी तरह तत्सम लिखना चाहते हैं, कुछ बोलचाल की भाषा में लिखना चाहते हैं।। यह व्यक्ति व्यक्ति पर निर्भर करता है। इसके अलावा एक सामान्य शिल्प भी होता है जो बताता है कि यह कविता है और यह कहानी या उपन्यास या नाटक। हर विधा का अपना एक अनुशासन होता है। वह अनुशासन तो हमें सीखना ही पड़ेगा। उसके बाद आपकी भूमिका शुरू होती है। जब हम यह जान लेते हैं कि हमें कविता लिखनी है।
मान लीजिए आप छंद में लिख रहे हैं तो आपने तय कर लिया आप इन इन छंदों में लिखेंगे। मान लीजिए आप मुक्त छंद में लिख रहे हैं, तो फ्री वर्स का मतलब यह तो नहीं है कि कुछ भी लिख दें, उसमे भी एक आंतरिक लय होगी। यह सब आप जब जान लेंगे फिर आपकी भूमिका शुरू होती है कि आप अपने ढंग का शिल्प फिर कैसे तैयार करें।
जैसे विनोद कुमार शुक्ल हैं, विनोद कुमार शुक्ल का अपना एक शिल्प है, उनके पाठ की गठन अपने तरह की है, जिसे अलग से पहचाना जा सकता है, मुक्तिबोध का वाक्य गठन अलग से पहचाना जा सकता है। रघुवीर सहाय का वाक्य अलग से पहचाना जा सकता है। ऐसे ही हर लेखक अपना वाक्य गठन बनाता है। उसकी अपनी पहचान इसी से होगी कि उसने शिल्प को कैसे बनाया है।
इसके अलावा, आपका विचार क्या है, आपकी दृष्टि क्या है, आप घटनाओं को कैसे देख रहे हैं, इससे भी आपकी पहचान होती है। आपका विज़न कितना व्यापक है, आपकी भाषा कितनी अच्छी है, आपकी भाषा आज की लिविंग भाषा है कि नहीं क्योंकि भाषा एक ऐसी चीज है जो हर पल बदलती है।
हमलोग जब मुक्तिबोध को पढ़ते हैं तो हमें लगता है कि इस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जाता था। छायावाद की भाषा अलग थी। छायावाद की भाषा की सीमा को खुद छायावाद के कवियों ने बाद में स्वीकार किया और निराला ने तो उस भाषा को तोड़ ही दिया। ‘नए पत्ते’ तक आते आते उस भाषा को पूरी तौर पर उन्होंने छिन्न भिन्न कर दिया क्योंकि वह समाज की भाषा नहीं थी।
समाज की जो जीवित भाषा होती है, उसे सीखना चाहिए किसी भी रचनाकार को। मैं मानता हूँ कि वही भाषा वास्तव में भाषा होती है जो समाज में लोगों के बीच बातचीत की भाषा होती है।
नए बदलाव पर सहजता से स्वीकार की स्थिति तो नहीं होगी, ऐसे में किसी रचनाकार को क्या करना चाहिए?
साहित्य में सहज स्वीकार तो कुछ भी नहीं होता। बड़े से बड़े जो रचनाकार रहे हैं उनके समय में उनकी आलोचनाएं खूब हुई हैं। निराला ने जब मुक्त छंद की बात की तो कहा गया कि यह रबड़ छंद है, यह केंचुआ छंद हैं। निराला से बड़ा तो कोई नहीं है हिन्दी में।
जब निराला बदलाव ला रहे थे, छंद को तोड़ रहे थे और इसे उन्होंने भारत के स्वाधीनता संग्राम से जोड़ा है, उन्होंने कहा जैसे स्वाधीनता के लिए दूसरे प्रयत्न करने की जरूरत है वैसे ही कविता को भी अपने छंदों की कैद से मुक्त होने की आवश्यकता है। जो इतने बड़े विचार से मुक्त छंद को जोड़ रहा हो, उसकी भी बड़ी आलोचना हुई।
मुक्तिबोध के बारे में बहुत दिन तक यह कहा जाता रहा कि ये तो समझ ही नहीं आते, केशवदास को ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहा जाता रहा। तो यह तो हमेशा होता है, कोई भी चीज जब आप बदलते हैं तो एकाएक उसे लोग पसंद नहीं करते। पर धीरे धीरे लोगों को उसकी ज़रूरत समझ आती है। तब उसे स्वीकार किया जाता है।
कवि राजेश जोशी की अपनी कौन सी प्रिय कविता है?
बड़ा मुश्किल है यह कहना कि कौन सी प्रिय कविता है। समय के साथ प्रिय कविता बदल जाती है। मुझे तो अक्सर यह भी लगता है जिन कविताओं की चर्चा होती है उसमें भी बहुत खोट है। तो प्रिय कविता थोड़े समय में मुझे अप्रिय हो जाती है। कई बार लोगों को जो प्रिय होती हैं वह हमें भी प्रिय हो जाती है पर प्रिय जैसा कुछ होता नहीं है। ‘इत्यादि’ कविता लिखने में मुझे मज़ा आया कि कैसे कविता एक शब्द से शुरू होती है।
सामान्यतः कविताएं एक अनुभव से शुरू होती हैं, मेरी ज़्यादातार कविताएं एक दृश्य से शुरू होती हैं पर ‘इत्यादि’ के साथ ऐसा नहीं हुआ। ‘इत्यादि’ सिर्फ एक शब्द से पैदा हुई कविता थी और फिर लगा कि इतने सारे लोगों के लिए इत्यादि कहना कितना गलत है।
हमने जिन्हें इत्यादि कह दिया है दरअसल वही इस समाज को बना रहे हैं।
क्यों ऐसा होना चाहिए कि जब कोई पुल बनता है तो उसका उद्घाटक वह होता है जो सिर्फ उस दिन वहाँ जाता है, उसका नाम पत्थर पर क्यों होता, उसका क्या हक है, बनाया तो उसे मजदूरों ने है, आर्किटेक्ट, डिजाइनर मजदूर जिन्होंने उसे बनाया है, उनका हक है। जो लोग सचमुच इस समाज को बनाते हैं उन्हें हमने इत्यादि बना दिया है, जो भयानक है। इन इत्यादियों की अहमियत हमें तब पता चलती है जब वे इकट्ठा होकर प्रतिरोध करते हैं, आंदोलन करते हैं।
माना जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है, सर आपकी कविताओं ने समाज को कैसे प्रभावित किया है, भाषा को कैसे समृद्ध किया?
कहना तो यह चाहिए कि साहित्य समाज से प्रभावित होता है। जब आप लिखते हैं तो उस समाज से अंतर्वस्तु लेते हैं जहां आप रहते हैं। भाषा एक सामाजिक चीज है। समाज की बनाई भाषा में से आप चुनते हैं। तो उसमें बहुत सारे संस्कार काम करते हैं, घर की भाषा, दोस्तों के बीच की भाषा फिर साहित्य में आने पर आप सीखते हैं और अपनी भाषा बनाते हैं।
मेरी नानी मालवा की थी, मेरी माँ भी मालवा की थी तो हमारे यहाँ मालवा के बहुत से शब्द हैं भाषा में। मैंने एक कविता में ‘बारसक’ शब्द का प्रयोग किया, बारसक दरवाज़े का फ्रेम होता है। कविता पढ़कर खंडवा के एक दोस्त ने मुझे फोन किया कि आपने कविता में एक गलत शब्द इस्तेमाल किया, मैंने पूछा तो उन्होंने कहा ‘बारसक’ नहीं होता, ‘बारकस’ होता है। फिर मैंने अपनी माँ से पूछा। तो उसने बोला कि वह व्यक्ति निमाड़ का होगा। निमाड़ में ‘बारसक’ ‘बारकस’ हो जाता है। ऐसे भाषा चुनी जाती है।
इस तरह भाषा बड़ी होती है। जैसे ‘पायला’ एक शब्द है इसके लिए दूसरा शब्द मिलना मुश्किल है। ‘पायला’ वे बच्चे होते हैं, जन्म के दौरान जिनका पैर पहले बाहर आता है। तो हमारी भाषा में जनपदीय बोलियों के बहुत से शब्द हैं और ये भाषा को समृद्ध करते हैं।
भाषा और साहित्य को बनाने- बचाने में प्रशासन की क्या भूमिका है?
लंबे समय तक बैंकिंग और प्रशासनिक काम अंग्रेजी में होता रहा था जिसमें काम करना आसान रहा। जब यह तय किया गया कि प्रशासनिक भाषा हिन्दी होगी तो मानक शब्दावली की जरूरत पड़ी। भारत सरकार ने मानक शब्दावली का एक विभाग बनाया और बैंकिंग की मानक शब्दावली तैयार की गई। हालांकि यह सही है कि इसे बनाए जाने की प्रक्रिया नकली प्रक्रिया है तथापि किसी किसी क्षेत्र में बेहतरीन काम हुआ है। जैसे कृषि के जितने भी शब्द हैं वहाँ गाँव वाली शब्दावली को ही अपनाया गया है जैसे- खसरा, खतौनी।
रवींद्र नाथ टैगोर ने जब All India Radio के लिए आकाशवाणी शब्द दिया तो उस वक्त लोगों ने मज़ाक जरूर बनाया पर फिर वो चल गया बाद में सभी आकाशवाणी बोलने लगे। भाषा में दूसरी भाषा से शब्द लिए जाते हैं, उसे धीरे धीरे ग्रहण किया जाता है। भाषा जितने शब्द स्वीकार करेगी, उतनी समृद्ध होगी।
शुद्धता का अतिरिक्त आग्रह भाषा का नुकसान करता है। भाषा में जितनी ग्रहणशीलता होगी, उसके समृद्ध होने की संभावना उतनी अधिक होगी।
हिन्दी कविताओं में गाँव की अपेक्षा शहरी परिवेश का चित्रण अधिक देखने को मिलता है, इसका क्या कारण है?
दरअसल हमारे समाज में दो ही तरह का समाज था- नागर समाज या आरण्यक समाज, गाँव बहुत बाद में आया। हमें गलतफहमी होती है कि शहर बाद में आया। संस्कृत साहित्य या पौराणिक-साहित्य देखेंगे तो नागर और आरण्यक समाज ही मिलेगा।
कृषि सभ्यता आने के बाद गाँव आता है तो यह बहुत दिलचस्प है कि कविता का मिजाज़ ग्रामीण है ही नहीं। वह एक तरह की नागर संकल्पना / विधा है।आप कोई भी कविता उठा कर देख लें। वह भले ही गाँव की बात कर रही हो, पर ज़रा देखिए, उनके लिखे जाने का, उनके कहन का ढंग क्या है?
मैथिली शरण गुप्त ‘अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या!’ लिख रहे हैं। तो बात यह है कि नागर ढंग से सोचते हुए जब हम गाँव को देखेंगे तो ‘अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या !’ ही देखेंगे। हिंदी कविता में गाँव वास्तव में, लगभग है ही नहीं। अक्सर काल्पनिक गाँव हैं। आदर्श गाँव की छवियाँ हैं। आगे चलकर पंत यथार्थ के थोड़ा करीब जाते हैं और कहते हैं ‘भारत माता ग्रामवासिनी- उदासिनी!’ पर आप ज्यादातर यही पाएंगे कि कविता चूंकि मूलतः नागर विधा है, उसमें गाँव के वर्णन तो मिल जाते हैं पर गद्य की तरह नहीं। लोकगीत अलग हैं।
गद्य में ऐसा नहीं हुआ है। प्रेमचंद के यहाँ गाँव के सारे विरोधाभास दिखते हैं। पूरे हिंदी साहित्य में जिस ढंग से प्रेमचंद गाँव को देखते हैं, जिस तरह प्रेमचंद गाँव के अंतर्विरोधों और विडंबनाओं को देखते हैं, गाँवों की जहालत को देखते हैं, जिस तरह ‘ठाकुर का कुआँ’ में जमींदारों के अत्याचारों को देखते हैं, आप हिंदी में एक कविता ढूँढ़कर बता सकते हैं जो गाँव के अंतर्विरोधों पर, सामंती अत्याचारों पर बात करती हो।
गांधी, नेहरू, अंबेडकर गाँव को लेकर एक दूसरे से बिल्कुल अलग राय रखते हैं। अंबेडकर को गाँव की संरचना को लेकर बहुत गुस्सा था, वे कहते हैं कि गाँव नाबदान हैं। जितने सवर्ण हैं वे गाँव के अंदर रहते हैं, दलितों को गाँव के बाहर रख दिया, सफाई करने के लिए बुलाते हैं फिर बाहर कर देते हैं।
नेहरू ने अपने लेखों में और गांधी जी को लिखे पत्रों में भी बार-बार यह माना कि गाँव सामंती व्यवस्था के सबसे भयानक केंद्र थे। उन्होंने कहा कि सामंतशाही अपना जीवन जी चुकी है। उनका यह भी विचार रहा है कि सामंतशाही ब्रिटिश राज से आर्गेनिक रूप से जुड़ी हुई है, और वह पतित है। इसलिए उनका विचार था कि गाँवों का नगरीकरण ज़रूरी है।
गांधी बिल्कुल यह मान रहे थे कि गाँव के खून से शहर बन रहा है। हालांकि गांधी ने भी बाद के दिनों में यह माना कि हमें गाँव को समृद्ध बनाना चाहिए। वहाँ शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य के केंद्र होने चाहिए।
भारतीय समाज की यथास्थिति का एक बड़ा कारण यह है कि गाँव का विकास नहीं होने दिया गया। आप सोच सकते हैं मध्य प्रदेश जैसे राज्य में 24000 से अधिक गाँव हैं। 7 करोड़ की आबादी में 2 -1 करोड़ आबादी शहर और कस्बे में रहती है। अब आप बताइए, कौनसी व्यवस्था है जो 24000 गांवों में ज़रूरी सुविधाएं उपलब्ध करा सके। यहाँ गाँव की कोई परिभाषा नहीं है, संरचना नहीं है। कस्बे तहसील की तो परिभाषा बेशक है। विकास की अवधारणा में ही बुनियादी खोट है।
कविताओं में गाँव के अंतर्विरोध, उसकी विडंबनाएं, उसकी त्रासदियाँ मुझे बहुत कम अभिव्यक्त हुई दिखती हैं। हो सकता है मैं गलत होऊँ! मैंने शिमला में अपने शोध के दौरान कविता के शहर पर काम किया तो मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि कविता में आरण्यक समाज तो है, नागर समाज भी है पर गाँव नहीं है।
आपने पद्य के साथ गद्य भी लिखा है, पद्य से गद्य की रचनायात्रा कैसी रही?
मैं नरसिंहगढ़ में पैदा हुआ और वह एक कस्बा है। वह मेरा ननिहाल था। फिर मैं भोपाल आ गया। मेरे नाना चूंकि डॉक्टर थे तो उनके साथ मैंने कुछ गांवों को देखा। तो गाँव मेरे अनुभव का हिस्सा नहीं है।
‘किस्सा कोताह’ जो एक किताब जैसी बन गई है, उस में नाना के साथ जिन गांवों में रहा हूँ उसका वर्णन है। हालांकि इसे तद्भव के एक वृत्तान्त कॉलम के लिए लिखा गया था। इसके बाद, गाँव पर मैंने बस एक कहानी ‘आलू की आँख’ लिखी है। मेरी पहली नौकरी गौतमपुरा में मास्टरी की लगी थी, विज्ञान के शिक्षक के रूप में । गौतमपुरा इंदौर के पास एक गाँव है। गौतमपुर से मेरा तबादला देपालपुर हुआ । यह ऐसा गांव है जहां आलू की खेती होती है और मोटे सूट की दरी बनाई जाती है।
मैं दरअसल शिक्षा को लेकर, खासकर, गाँव के साथ शिक्षक का क्या रिश्ता होता है, लिख रहा था। वहाँ हर टीचर की दुकान बँटी होती थी। जैसे वहाँ से दरी लेकर इंदौर में सप्लाई करते थे। मैंने ऐसे कई विरोधाभास वहाँ देखे, तो इस तरह से वह गाँव मेरी उस कहानी में आया।
बाहर से देखकर एक आउटसाइडर के तौर पर जो लिखा जाता है, उस तरह के लेखन से कई बार पाठक का कनेक्ट नहीं हो पाता, आप क्या सोचते हैं इस बारे मे?
देखिए, ऐसा होगा ही। हर चीज के इनसाइडर आप नहीं हो सकते। जैसे मैंने बैंक में कितने साल नौकरी की पर मैं बैंक के बारे में कविता, कहानी नहीं लिख सका। कई बार आप जहां होते हैं वहाँ भी इनसाइडर नहीं हो पाते। एक बात यह भी है कि आपकी जो एक सामाजिक ज़िम्मेदारी है, उसके तहत भी आप लेखन करते हैं। स्वाभाविक है कि इनसाइडर और आउटसाइडर के लेखन में फर्क होगा। आर्थर हेली ने मनी चेंजर नाम की एक किताब लिखी। यह बैंक के विषय पर बहुत प्रचलित किताब है। इस किताब को पढ़ते हुए लगेगा कि लेखक पूरी बैंकिंग जानता है पर उसके साथ आपका इंटरनल संबंध नहीं बनेगा।
जो कवि होता है उसके गद्य पर भी उसके कवि का असर दिखता है, जैसे प्रसाद के बारे में कहा जाता रहा है, उनके नाटकों में कवित्व है। आप अपनी गद्य रचनाओं में अपने कवि का कितना और कैसा असर देखते हैं।
देखिए, मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि मन कवि ही होता है। प्रेमचंद को पढ़ लीजिए। पूस की रात, कफन, ठाकुर का कुआं पढ़ते हुए कई बार लगेगा कि हम कविता पढ़ रहे हैं। कविता एक ऐसी अभिव्यक्ति है जो अचानक निकल आती है। जैसे निर्मल वर्मा के बारे में कहा जाता है कि उनकी कहानियाँ काफ़ी काव्यात्मक हैं। तो बात यह है कि काव्यात्मकता सिर्फ़ कविताओं में नहीं, गद्य में भी हो सकती है। रेणु की कहानियाँ पढ़ेंगे, तो लगता है कविताएं पढ़ रहे हैं।
अमेरिकन अभिनेत्री शेरलेट ने लिखा “सृष्टिकर्ता सृष्टि के बारे सोच रहा था तो वह कविता थी।”
गाँव चले जाइए तो आप पाएंगे कि लोगों के जीवन की अभिव्यक्ति में कविताएं शामिल हैं। तो कविता से पिंड नहीं छूट सकता। कविता मन के भीतर धँसी हुई है।
‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’ इस कविता को लिखने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली? यह भी बताइए कि बच्चों के लिए आप किस तरह का संसार निर्मित करना चाहते हैं?
दुर्भाग्य से हम एक ऐसे समाज है जहां सबसे अधिक बाल श्रमिक हैं। हालांकि उसके लिए कानून बने हैं। पर आज भी सबसे बड़ी तादाद में बाल श्रमिक हमारे यहाँ हैं और बच्चों के जीवन को लेकर हम संवेदनशील भी नहीं हैं।
यहाँ भीख मांगते बच्चे मिल जाएंगे, छोटे होटल में चाय पीने जाएंगे तो एक बच्चा आपकी जूठी कप उठा रहा होगा। हमने एक ऐसा समाज बनाया है, जहां हर कदम पर हमें बाल श्रमिक दिखते हैं और यह भयानक है। कविता में या किसी भी विधा में इसे कहना असंभव सा काम है कि ऐसा समाज जो बच्चों के प्रति असंवेदनशील है, वह समाज कैसे ज़िंदा रह सकता है।
माना जाता है कि स्त्रियों के प्रति आपका व्यवहार/ आपका दृष्टिकोण, आप किस सामाजिकता में रह रहे हैं- को बताता है और बच्चों के प्रति आप कैसा व्यवहार करते हैं यह बताता है कि आप कितने मानवीय हैं। यदि इस नज़र से हम विश्लेषण करें तो पाएंगे कि हम बेहद अमानवीय समाज का हिस्सा हैं। यह बात मुझे हमेशा से बहुत परेशान करती रही है।
कितना अजीब है कि कैलाश सत्यार्थी को जब नोबेल पुरस्कार मिलता है तो इस बात पर मिलता है कि उसने कितने बच्चों को बंधक से छुड़वाया । यह बात मुझे किसी भी देश और समाज के लिए सम्मान की बात नहीं, शर्मिंदगी की बात लगती है कि हम अपने बच्चों को न्यूनतम सुविधाएं नहीं दे सके हैं। इस बात को लेकर मेरे भीतर बहुत गुस्सा है क्योंकि मैंने बच्चों के प्रति क्रूरताएं देखी हैं।
मेरे ख्याल से हिन्दी के लगभग सभी कवियों ने बच्चों पर लिखा है। निराला, देवताले, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, मतलब हर कवि के पास आपको ऐसी कविताएं मिलेंगी जहां उनका ध्यान बच्चों की ओर गया। मुझे लगता है हर भाषा में कवियों/ रचनाकारों ने यह किया होगा।
दुख इस बात का भी है कि हमारे यहाँ प्राथमिकताएं स्पष्ट नहीं हैं। बच्चों की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी नहीं हो रही हैं और हम बेवजह की इमारतों की स्थापना पर अपने संसाधन खर्च रहे हैं।
‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’ कविता को लिखते हुए यही सब बातें दिमाग में थीं। मैं इस विषय को लेकर बहुत गुस्से में रहा हूँ और अभी भी हूँ।
मुझे यह भी लगता है कि धर्म के पास जो अनुत्पादक पूंजी है उसे प्राप्त कर लिया जाए तो इस देश की सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी और मैं यहाँ सारे धर्म की बात कर रहा हूँ ।
सामान्य सी लोकतान्त्रिक व्यवस्था भी अगर मानवीय हो और वह थोड़ी अक्लमंदी के साथ सोचे तो सोच सकती है कि क्या प्राथमिकताएं होनी चाहिए।
अपनी भाषाओं के प्रसार के लिए हमें क्या प्रयास करने चाहिए?
मुझे हमेशा लगता रहा है कि लोगों से संपर्क, संवाद किया जाए और उन्हें अपने काम अपनी भाषा में करने हेतु प्रोत्साहित किया जाए। दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं है जो किसी दूसरी भाषा में अपने काम कर रहा हो।
चूंकि हम बहुत साल गुलाम रहे तो उनकी भाषा हमपर हावी रही और हमारे शुरू के शासकों ने मान लिया कि हमारे पास कोई भाषा नहीं है। हिन्दी तब बन रही थी। हिन्दी स्वाधीनता संग्राम में ही विकसित हो रही थी, अतः बहुत सारे लोग यह मानते रहे कि सारे काम इस भाषा में नहीं किए जा सकते हैं।
हमें लोगों से संवाद करते रहना होगा कि अपनी भाषा में काम करना आसान है। अंग्रेज़ी भारतीय प्रसंग में अब कोई उर्वर भाषा नहीं है । हमारे यहाँ अंग्रेज़ी का जो मोह बना हुआ है, उन्हें यह नहीं मालूम कि उनकी अंग्रेज़ी उर्वर नहीं है क्योंकि वह लिविंग भाषा नहीं बोल रहे, वह जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, वह ठहरी हुई भाषा है, उसमें कोई रचनात्मक ऊर्जा नहीं बची है। हमें लोगों को यह भी बताना होगा कि बुद्धिमानी का कोई ताल्लुक अंग्रेज़ी से नहीं है।
इसलिए अच्छा यह है कि हम अपनी जीवित भाषा का इस्तेमाल करें।
मैं हाल ही में पाश को दुबारा से पढ़ रही थी, पाश अपनी रचनाओं के ज़रिए स्थापितों को तोड़ने की बात करते हैं, लड़ने की जरूरत की बात करते हैं। राजनीति की स्थापित संरचना ऐसी कविताओं से गुरेज़ कर सकती है, करती आई है- ऐसे में एक कवि को क्या करना चाहिए?
बहुत सारे कवि एक्टिविस्ट होते हैं। बहुत सारे ऐसे कवि भी होते हैं जिन्हें यह लगता है कि कवि का यह काम नहीं है। यह कोई आज की बहस नहीं है कि कवि को एक्टिविस्ट होना चाहिए कि नहीं, उसे इतना असामाजिक होना चाहिए कि नहीं। उसे इतना राजनैतिक होना चाहिए कि नहीं।
बहुत सारे लोगों को लगता है तुलसीदास अराजनैतिक कवि हैं जबकि तुलसीदास जैसा राजनैतिक कवि कोई नहीं है। कबीर से ज्यादा राजनैतिक कवि कौन है? मीरा से ज्यादा विद्रोही राजनैतिक कवि कौन है!
पढ़ने का एक ढंग हमने तय कर लिया है कि तुलसी तो सिर्फ राम कथा कह रहे हैं , पर जब हम तुलसी को ध्यान से पढ़ेंगे तो पाएंगे कि कितनी जगह कवि अपने समाज की बात कर रहा है। यह बात अलग है कि तुलसी कई जगह पर वर्ण व्यवस्था के समर्थक हो जाते हैं पर वर्ण व्यवस्था का समर्थन करना भी एक राजनीति है। आप उससे सहमत, असहमत हो सकते हैं पर आप उसे अराजनैतिक नहीं कह सकते।
मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि कवियों को सामाजिक होना चाहिए।
आपकी कविता चाहे वह ‘जब तक मैं अपील लिखता हूँ’, या ‘मारे जाएंगे’ हो, या फिर ‘इत्यादि’ हो, या ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’ का समय काल आज का नहीं है, पर सारी कविताएं आज भी सच और प्रासंगिक हैं? एक कवि अपनी ऐसी कविताओं के प्रासंगिक बने रहने को कैसे देखता है?
मुझे अफसोस होता है इसकी प्रसंगिकता को लेकर। ‘मारे जाएंगे’ कविता 87 में लिखी गई थी। मैंने एक इंटरव्यू में पंकज चतुर्वेदी से कहा था कि यह मेरे लिए अफसोसनाक है और ऐसी स्थिति किसी भी कवि के लिए अफसोसनाक है कि वह अपनी कविताओं में जिन चीज़ों पर प्रहार कर रहा है (सांप्रदायिकता या ऐसी चीज़ों पर) समाज उसकी कविता को प्रासंगिक बनाए। यह यकीनन कवि की हार है।
ऐसे समय में आप कितने आशावान हैं?
देखिए, समाज कोई स्थिर चीज़ नहीं है, बिगड़ते हुए भी समाज बनता है।
जैसा समाज हमारे पूर्वजों को मिला था, हमें उससे बेहतर समाज मिला है, चाहे उसमें कितने ही विरोधाभास क्यों न हो!
राजनैतिक विरोधाभास को देखकर हमें लग सकता है कि हम एक बेहद बुरे समय में जी रहे हैं पर यह समय भी बीतेगा और बीत रहा है। नामवर जी ने एक बहुत सुंदर बात बोली थी कि हमारे पाँव का शेप ही ऐसा है कि वह आगे ही जाएगा, पीछे नहीं जाएगा। तो आप कुछ भी कर लीजिए, कोई भी व्यवस्था समाज को पीछे नहीं ले जा सकती है।
आप कितना ही कहें कि टेक्निकल यूनिवर्सिटी में गीता पढ़ाएंगे, आप समाज को पीछे नहीं कर सकते। समाज आगे ही जाएगा।
इतिहास प्रमाण है कि कोई भी शासक कितना भी बड़ा क्यों न हो, वह समाज को पीछे नहीं कर सका है क्योंकि पीछे जाने का रस्ता ही नहीं।
सामाजिक आंदोलनों के दौर में एक नागरिक के तौर पर हमारी क्या जिम्मेदारी होनी चाहिए?
हर नागरिक को सामाजिक आंदोलन में अपना निर्णय लेना चाहिए। आप उसके साथ रहिए या विरुद्ध पर अपना निर्णय ज़रूर लीजिए। आपको यह तय करना होगा कि आप किसी आंदोलन के साथ हैं या नहीं। दिनकर ने कहा है न : ‘जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध’
इसलिए आपको हिस्सेदारी तो करनी होगी। आप आंदोलन का विश्लेषण करिए। हर आंदोलन अच्छे ही हों, यह ज़रूरी नहीं पर आपको अपनी हिस्सेदारी तय करनी ही होगी। तटस्थता कभी भी कोई मूल्य नहीं हो सकती।