भाषाएँ पूरे जीवन को अपने कंधों पर उठा कर चलती हैं – सत्यपाल सहगल
सवाल करना हल की दिशा में पहला कदम है। इसलिए हर ज़रूरी मसलों पर सवाल उठाते रहना चाहिए। फ़र्क पड़ता है – सत्यपाल सहगल
सवाल करना हल की दिशा में पहला कदम है। इसलिए हर ज़रूरी मसलों पर सवाल उठाते रहना चाहिए। फ़र्क पड़ता है – सत्यपाल सहगल
हम इंसान के तौर पर कहाँ जा रहे हैं हैं मुझे नहीं मालूम।, इसमें हमारे समाज का ढांचा कितना जिम्मेदार है मैं नहीं जानती पर यह सवाल तो है ही कि हम कितना निष्पक्ष और समतामूलक समाज बना पा रहे हैं?
साकिब कहते हैं: “दरअसल सीमित संसाधन होने की वजह से हमारा कैनवास थोड़ा छोटा है। इसलिए जो बच्चे लगातार आ रहे हैं और इन्सान बने रहने में जिनका यकीन है, फ़िलहाल हम उन पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं।”
सामाज में जो क्लास डिविजन है, उसमें हायर क्लास के लोगों को लगता है कि उनके कपडे भी अलग हों और ज़बान भी अलग हों, तभी वे उच्च रह सकेंगे। बड़े माने जाएंगे। इसे बदलने का सबसे बड़ा तरीका यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक भाषा नीति होनी ही चाहिए|
डॉ सरबजीत सिंह पेशे से प्रोफेसर व अध्यक्ष है, पंजाबी विभाग, पंजाबविश्वविद्यालय चंडीगढ़ के। डॉ सरबजीत सिंह स्वभाव से शिक्षक के साथ साथ एक्टिविस्ट हैं, सामाजिक न्याय के पक्षधर हैं और बराबरी वाले एक सुंदर समाज को गढ़ने में योगदान दे रहे हैं। आप सबके लिए पेश हैं डॉ सरबजीत सिंह से हुई बातचीत :
प्रगतिशील कवि भगवत रावत का जन्म 13 सितम्बर, 1939; ग्राम—टेहेरका, ज़िला—टीकमगढ़ (म.प्र.) में हुआ। भगवत रावत समकालीन हिन्दी कविता के शीर्षस्थ कवि, साहित्यकार और मेहनतकश मज़दूरों के प्रतिनिधि कवि के रूप में प्रसिद्ध रहे। उन्होने समाज की अमानवीय स्थितियों के विरोध में भी कई कविताएं लिख। वे मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष और ‘वसुधा’ पत्रिका के संपादक भी रहे। भगवत रावत …
जीवन को बचा लेने, सुंदर बना लेने की चाह रखती भगवत रावत की कविता – ‘करुणा’ Read More »
हम स्वास्थ्य की बात करते तो हैं पर हम स्वास्थ्य को लेकर कितने संजीदा और कितने संवेदनशील हैं, यह भी सोचने की हमें ज़रूरत है। एक समस्या हमारे साथ यह भी है जो चीज़ें हमें दीखती नहीं, हम उनके होने की संभावना तक को नकार देते हैं। हालांकि ऊपर कही अपनी ही बात पर यदि फिर से ठहर कर सोचूं तो पाती हूं कि ऐसा नहीं है कि वे चीज़ें दीखती नहीं हैं। यहाँ यह कहना ज़्यादा सही और बेहतर होगा कि हमने देखने समझने के लिए एक अलग घेरा, एक अलग दायरा बनाया हुआ है और उसके बाहर की चीज़ें हमें असली ही नहीं लगतीं इसलिए हम बार बार उसे अनदेखा करते हैं।
शबनम 2015 से वीडियो वॉलेंटियर के साथ जुड़ी हुई हैं और समृद्ध सांस्कृतिक-राजनीतिक विरासत वाले वाराणसी क्षेत्र में बतौर वीडियो एक्टिविस्ट काम कर रही हैं। वे अब तक कई महत्वपूर्ण विषयों मसलन सफ़ाई, स्वास्थ्य, शिक्षा, जेंडर आदि पर रिपोर्टिंग कर चुकी हैं। स्त्री शिक्षा के लिए वे अतिरिक्त प्रयास कर रही हैं और अपने समुदाय में उन्होंने एक डिस्कशन क्लब बनाया हुआ है जिसके माध्यम से वे लोगों को शिक्षा के प्रति जागरूक बना रही हैं क्योंकि वे इस बात में यकीन करती हैं कि शिक्षा के ज़रिए ही बड़े बदलाव लाए जा सकते हैं।
मैं पितृसत्ता के किसी भी औज़ार के साथ नहीं हूँ, पर मैं शिक्षा के हक़ में हूँ क्योंकि मुझे पता है कि इसी शिक्षा से हम एक दिन पितृसत्ता के उन तमाम औजारों को तोड़ डालेंगे। मैं शिक्षा के अपने हक़ को मांगती उस लड़की के साथ हूँ। अब, तय आपको करना है कि आप आखिर किस ओर हैं?
धनंजय चौहान को अपनी पहचान की वज़ह से जो प्रताड़नाएं झेलनी पड़ी हैं, वो इस समाज के चरित्र को नुमाया करती हैं। हमारे समाज की तमाम क्रूरताओं के बीच धनंजय ने अपनी पहचान के लिए लड़ना ज़रूरी समझा और उसे हासिल भी किया।