ज़िन्दगी को भी प्यार की दरकार है…

“जाना हिन्दी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है”

प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह की कविता की पंक्ति है यह। जाने की यह जो क्रिया है वह यकीनन बेहद खौफ़नाक है पर मुझे बार-बार लगता है कि “यह क्रिया देखने वाले को जितनी अचानक दीखती है, करने वाले के लिए वैसी अचानक नहीं होती। वह किसी खौफ़, भय से बने अवसाद के लंबे समय का परिणाम होती है। हमें उस समय को समझने और और उस समय में संवाद करने की कोशिश करनी है। हमें ‘ऐसे समय में’ और ‘हमेशा’ ही ज्यादा एम्पेथेटिक बनने की ज़रूरत है।”

हम स्वास्थ्य की बात करते तो हैं पर हम स्वास्थ्य को लेकर कितने संजीदा और कितने संवेदनशील हैं, यह भी सोचने की हमें ज़रूरत है। एक समस्या हमारे साथ यह भी है जो चीज़ें हमें दीखती नहीं, हम उनके होने की संभावना तक को नकार देते हैं। हालांकि ऊपर कही अपनी ही बात पर यदि फिर से ठहर कर सोचूं तो पाती हूं कि ऐसा नहीं है कि वे चीज़ें दीखती नहीं हैं। यहाँ यह कहना ज़्यादा सही और बेहतर होगा कि हमने देखने समझने के लिए एक अलग घेरा, एक अलग दायरा बनाया हुआ है और उसके बाहर की चीज़ें हमें असली ही नहीं लगतीं इसलिए हम बार बार उसे अनदेखा करते हैं। और एक गहरा टैबू तो है ही पैबस्त हमारे समाजीकरण में और इस तरह हमारी सामाजिक मानसिकता में भी। तभी तो अवसाद को अमीरों की बीमारी कह कर भी इग्नोर कर दिया जाता है। “जबकि सच यह है कि उदासियाँ किसी को भी घेर सकती हैं, जीवन का संकट किसी के भी सामने आ सकता है।”

मनोविश्लेषण के दफ़्तर में होने को बहुत सारे कमरे होते होंगे जिनके बारे में मनोविश्लेषण की शाखा का अध्ययन करने वाले विस्तार में बात कर सकेंगे। जितने कमरे होंगे उतने बयान भी हो सकते हैं। ऐसे में हमें सोचना होगा कि हम क्या कर सकते हैं?

यह तो सच ही है कि हम जहां शरीर की दीखने वाली बीमारियों तक को अनदेखा करना सीख जाते हैं , वहां मन के स्वास्थ्य पर बात करना कहां आसान हो पाता है।

पागल कहलाने का डर यहाँ सबसे ज़्यादा होता है…

बड़ी हिम्मत से कहने पर जब ‘दिमाग का फितूर है’ सुनते हैं तो बड़ी मुश्किल से जुटाई गई वह थोड़ी सी हिम्मत भी उड़ जाती है और मन थोड़ा और गहरे अंधेरे में पहुंच जाता है। “हम बिजली के बहुत सारे स्विच ऑन कर देते हैं। भागने की एक कोशिश यह भी होती है पर बिजली के वे बहुत सारे स्विच भी हमारे भीतर के अंधेरे को राहत नहीं दे पाते।” हालांकि हम इसे खुद को संभालने की कोशिश की तौर पर देखते हैं उस वक़्त…!!

एकदम शांत से समय में आप अजीब से सवालों में खुद को बुरी तरह उलझा पाते हैं और उस उलझन से उस वक़्त निकल न पाने की छटपटाहट आपके भीतर बौखलाहट भर देती है।

आपको कुछ लोग ऐसे भी मिलेंगे जो आपकी इस बेचैनी को आपकी भावुकता कह अनजाने में ही आपको थोड़ा और डरा देंगे।

हमने और हमारे समाज ने अभी अवसाद को बहुत गंभीरता से नहीं लिया। हमारे लिए बाहर दीखती हुई रोशनी ज़्यादा ज़रूरी है भीतर के अंधेरे को हम मज़ाक में लेते हैं जबकि वह अंधेरा किसी के भीतर बहुत बड़ा शून्य तैयार कर रहा होता है।

हमें, कहने का मतलब है कि, हर किसी को, सोचना होगा उस ‘शून्य’ के बारे में जो जीवन में निस्सारता भर देता है। यह भी सोचने की ज़रूरत है कि वह निस्सारता कहाँ से आती है जो हँसते मुसकुराते ‘हाँ’ को त्रासद ‘ना’ में तब्दील कर देती है। मनुष्य के ‘होने’ बनाम ‘न होने’ का प्रश्न वैसे भी ज्ञान की किसी एक शाखा का प्रश्न नहीं है इसलिए हमें लगातार इसके जवाब खोजते रहना है, हर जगह खोजना है।

अवसाद पर सोचते हुए मुझे ‘Suicide’ शीर्षक की एक किताब याद आ रही है। 1897 में आई इस किताब में लेखक और समाजशास्त्री एमिल दुर्खीम कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति समाज और समुदाय से अपनी संबद्धता और सामंजस्य खो देता है, तो वह अर्थहीनता, उदासीनता और अवसाद का शिकार हो जाता है और शायद इसीलिए वह जीना नहीं चाहता। वे अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि जिस समाज में आत्महत्या की दर बढ़ रही है, उस समाज को देखो। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके समाजार्थिक बदलाव मनुष्य को नैतिक उलझन और दिशाहीनता का शिकार बना रहे हैं।

सही समय पर सही हस्तक्षेप बहुत ज़रूरी है। अवसाद को जी रहे व्यक्ति के लिए कहना बहुत जरूरी है,  ज़रूरी है पागल कहलाने के किसी भी डर से बाहर निकल अपनी दिक्कत कहना, ज़रूरी है खुद को प्यार करना पर उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरी है एक समाज के तौर पर हमें उन्हें सुनने और और समझने की कैफ़ियत रखना। हमें ‘एट रिस्क’ लोगों की मदद का ढांचा खड़ा करना होगा। समाज में संवाद और रचनात्मक व सांस्कृतिक गतिविधियों का वातावरण बनाना होगा। हमें अपने आसपास के लोगों को समझना और महसूस करना शुरू करना होगा।

सबसे पहले ज़रूरी है मानसिक रोग को हम ‘टैबू’ की तरह लेना बंद करें और उस पर बातचीत करें। हालांकि यह अच्छी बात है कि इस पर बातचीत शुरू हो रही है, पर हमें और अधिक खुलना होगा, एक समाज के तौर पर और अधिक उदार होना होगा। हमें अपने भीतर एक्सेप्टेन्स (लोगों को अपनाने, उन्हें स्वीकार करने की प्रवृत्ति) की प्रवृत्ति को विकसित करना होगा। हमें समझना होगा कि हर व्यक्ति अलग है, उसकी यात्रा अलग है, हमें उस यात्रा को भी समझना होगा और उस व्यक्ति को भी।  हमें समझना होगा कि मानसिक ‘रोग’ एक ‘रोग’ है जिसे सवालिया निगाहों से देखे जाने की जगह समुचित इलाज़ की ज़रूरत है। समाज के तौर पर हमें निश्चय ही और गंभीर, और संवेदनशील होने की ज़रूरत है। यह सच है कि आत्महत्या एक त्रासदी है जो होने के बाद ही पता चलती है पर यकीन मानिए वह इतना भी अचानक नहीं घटित होती कि उसके आसपास के लोगों को पता न चले। जाने वाला व्यक्ति किसी न किसी भाषा में मदद के लिए पुकारता ज़रूर है। हमें पुकार की उस भाषा, जो स्पष्ट भी हो सकती है और सांकेतिक भी, को समझने और उसपर चर्चा करने, जागरूकता फैलाने की ज़रूरत है।

यकीन मानिए हम सब एक दूसरे की मदद कर सकते हैं। अगर हम अपने भीतर थोड़ी सी समानुभूति और करुणा जगा सकें। सुन सकें वो आवाज़ें जो मदद को पुकार रही हैं। यकीन मानिए कई दफ़े वह सुन लेना ही काफ़ी होता है। वो कहते हैं न:

A Healthy Dialogue is a master key (ए हेल्दी डायलॉग इज़ ए मास्टर की)

आप भी कहिए, बातें करिए, खुद को शेयर कीजिए, दोस्तों से बातें कीजिए उनका हालचाल लीजिए, उनकी आंगिक, वाचिक भाषा को समझने की कोशिश कीजिए और हाँ खुद को और दूसरों को प्यार कीजिए! इस दुनिया को बहुत सारे प्यार और बहुत सारी करुणा की ज़रूरत है…!!

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