संस्थाएं स्वतंत्र और निर्भीक व्यक्तियों को अफोर्ड ही नहीं कर सकती – शायदा बानो

पत्रकारिता की भूमिका किसी भी लोकतान्त्रिक समाज में काफ़ी महत्वपूर्ण होती है। ऑफ द सिटीजन्स के पेज से आइए पढ़ते हैं 22 वर्षों से पत्रकारिता कर रहीं शायदा बानो से हुई बातचीत! वर्तमान में वे सिटी भास्कर (चंडीगढ़) का संपादन कर रही हैं। रिपोर्टिंग में इनके सैंकड़ों मुख्य आलेख प्रकाशित हुए हैं। भगत सिंह पर प्रकाशित जुपिंदर जित सिंह की अंग्रेजी किताब “डिस्कवरी ऑफ भगत सिंह पिस्टल एंड हिज़ अहिंसा” का इन्होने हिन्दी अनुवाद किया है जो कि “भगत सिंह की पिस्तौल की खोज ” नाम से प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित हो  चुकी है। इसके अलावा, वे मंटो पर एक बेहद महत्वपूर्ण किताब तैयार कर रही हैं। शायदा बानो सामाजिक न्याय की हिमायती हैं और बराबरी वाले एक सुंदर समाज को गढ़ने में अपना योगदान दे रही हैं। 

सबसे पहले हमारे पाठकों को अपने बारे में कुछ बताइए। 

पत्रकारिता में आने की मेरी कोई योजना नहीं थी। ज़्यादातर बच्चों की तरह मुझे भी स्कूल में टीचर बनने का ही शौक था। क्योंकि हमें ऐसा लगता है कि बड़े होकर बच्चों को पढ़ाकर हम कुछ बदलाव ला सकते हैं। थोड़ी बड़ी होने पर मुझे लगा कि लाइब्रेरियन बनना ज्यादा अच्छा विकल्प है क्योंकि वहाँ आपको बहुत सारी किताबें पढ़ने को मिलती हैं, आपको इश्यू नहीं करानी पड़ती। जो मन, वो किताबें आप पढ़ सकते हैं। पर जब मैं थोड़ा और बड़ी हुई, मैंने कॉलेज कर लिया फिर मुझे लगा कि मैं पीएचडी के लिए रजिस्टर करूँ। तब तक आते आते मुझे ये समझ आया कि अब तक जो विचार करियर के लिए मुझे आते थे, वे दीर्घकालिक नहीं थे। वो सारी चीज़ें अब मुझे बहुत रूटीन जैसी चीज़ लगने लगी थी जिनसे मुझे बहुत कोफ्त होती थी। और इतनी सारी अनिश्चितताओं के बीच मेरे ज़ेहन में एक बात निश्चित थी कि सरकारी नौकरी नहीं करनी है। क्योंकि मुझे लग गया था कि जो लोग 9 बजे उठकर तैयार होकर टिफिन उठा कर चल देते हैं, एक निश्चित समय पर खाना खाते हैं, एक निश्चित समय पर घर आते हैं, यह वह तबका है जो कभी भी उफ नहीं करता और सबसे अधिक समझौते करता है। और मुझे किसी भी हालत में यह नहीं करना था। पर करना क्या था, इसको लेकर कोई स्पष्टता नहीं थी। 

इसी बीच मैं एक ऐसी नौकरी करने लगी जिसके बारे में मैंने कभी नहीं सोचा था। एक दवा बनाने वाली कंपनी में मैं क्लेरिकल काम करने लगी, अकाउंट्स देखने लगी। मैंने अपनी पीएचडी शुरू की, दिनकर के ऊपर, 6 महीने तक उसपर काम भी किया। पर मैंने उसे जारी नहीं किया। मैं नौकरी करने लगी थी और मुझे उसमें कोई बुराई नहीं लग रही थी। पैसे कमाने लगी थी। कुछ साल वहाँ काम करने के बाद वो कंपनी बंद हो गई। उसके बाद ध्यान आया कि मैं कर क्या रही थी। उसके बाद पत्रकारिता शुरू हुई क्योंकि पढ़ने, लिखने की ही दुनिया में लौटना था। पर टीचिंग का ख्याल तब नहीं आया क्योंकि वह मुझे बहुत रूटीन सा काम लगता था हर साल एक ही सिलेबस हर साल दुहराई जाती हैं। तो फिर पत्रकारिता करना शुरू किया और फिर उसमें बहुत ही मज़ा आने लगा।

तो फिर आपने पत्रकारिता की कोई विधिवत ट्रेनिंग नहीं ली ?

उस वक़्त नहीं ली थी। हमारी ऑन जॉब ट्रेनिंग आईआईएम इंदौर में हुई थी। यह ट्रेनिंग मैनेजमेंट ऑफ एडिटोरियल पर थी। हमारे ऑफिस ने ही यह ट्रेनिंग डिजाइन की थी जो कि एक साल की थी। 

जिस वक़्त आपने किसी निश्चित पैटर्न की नौकरी की जगह पत्रकारिता करना चुना उस वक़्त यह निर्णय करने में क्या मुश्किलें आईं? यह सवाल इसलिए भी कि आज भी ज़्यादातर परिवार यह चाहता है कि उनके बच्चे सरकारी नौकरी लेकर सेटल हो जाएँ। लड़कियों के मामले में तो यह बात और भी लागू होती है। ऐसे में आप जिस समय में थी, जिस जगह में थी, उस समय और उस जगह ने कोई दिक्कत नहीं की? अपने अनुभव बताइए… 

दिक्कत तो रही। मेरी माँ को तो मेरे काम की जानकारी थी, पर मेरे रिश्तेदारों को इसकी जानकारी नहीं थी। एक बार मेरी एक मौसी मेरे घर आई थी । मेरा काम देर रात खत्म होता है।  जब मैं घर आई तो वो दरवाजे पर खड़ी थी और मुझे ऑफिस से एक आदमी छोड़ने आया था। हालांकि उन्हें समझाने में ज्यादा दिक्कत नहीं आई और वे  समझ गई। पर मुझे लगता है कि  आज के समय में यह बदलाव तेज़ी से आया है।  मैं अपनी पूरी बिरादरी में एमए करने वाली पहली लड़की थी, जॉब करने वाली पहली लड़की थी। और अब मेरी जैसी बहुत सारी लड़कियां हैं और यह बदलाव बहुत रैपिड है। 

पत्रकारिता में आप अब लंबे समय से हैं, पत्रकारिता को समग्र रूप से आप कैसे देखती हैं? पत्रकारिता की आप क्या भूमिका मानती हैं?

देखिए समग्रता में अच्छे बुरे लोग हर जगह मिलेंगे पर हाँ यह ज़रूर है कि इस समय में अधिकांश लोगों ने समझौते किए हैं। पत्रकारिता में भी किया है। हम जब कहते हैं पत्रकारिता खराब हुई है पर सच तो यह है कि खराबी हर जगह आई है। मीडिया चूंकि हर पल आपके सामने है इसलिए वहाँ की गिरावट दिख जाती है। सच यह है कि समाज के रूप में ही हमारा क्षरण हुआ है और मीडिया अपवाद नहीं है।

अभी आपने कहा कि समाज के रूप में हमारा क्षरण हुआ है, ऐसे समय में इंडिपेंडेंट जर्नलिज़्म को आप कैसे देख रही हैं? 

इंडिपेंडेंट जर्नलिज़्म उस थौट का जर्नलिज़्म है जो सच में पत्रकारिता करना चाहता है। पत्रकारिता का पहला सिद्धान्त ही है- व्यवस्था पर सवाल उठाना। वजहें जो भी रही हों पर समय के साथ लोगों ने सवाल उठाना छोड़ दिया है। जो लोग आज भी सवाल उठा पा रहे हैं वे संस्थानों से बाहर चले गए हैं और स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं। संस्थाएं स्वतंत्र और निर्भीक व्यक्तियों को अफोर्ड ही नहीं कर सकती। 

आज़ादी के बाद का समय राष्ट्र निर्माण का समय था, पर समय के साथ हमने अपने उस आइडिया को छोड़ दिया और मटीरियलिस्टिक अप्रोच बढ़ती गई। जहां तक विज्ञापनों की स्थिति है तो बात यह है कि हमारे यहाँ अखबार बहुत कम कीमत में बिकते हैं। अखबार पूंजी से ही तो चल रहे हैं। तो इसलिए विज्ञापनों की यहाँ जगहें और ज़रूरत है। यह पूरी तरह बाज़ार है। पर इन सारी स्थितियों में यदि आपके भीतर वाकई में पत्रकार है तो आपको ऐसा करने के खूब मौके मिलेंगे कि आप अपना पत्रकारिता धर्म निभा सकें। पत्रकारिता एक ऐसा क्षेत्र है जो आपको रोज़ जगाएगा। आपको मौके देगा जीवन और समाज को बेहतर बनाने में अपना योगदान देने का।

राजनीतिक विचार रखना कितना ज़रूरी है और लोग अपना स्टैंड लेने से बचते क्यों है?

क्योंकि सबसे आसान होता है चीजों को इग्नोर कर चलते जाना। जो यह कहते हैं कि अपने को क्या लेना, वह सबसे बड़े झूठे होते हैं। 

बहुत सारे रिवाज़ गैर बराबरी को बढ़ावा देते लगते हैं? आपका क्या ख्याल है?

रिवाज़ों को समय के साथ बदलावों को शामिल करते रहना चाहिए खुद को बदलते रहना चाहिए, ऐसा मुझे लगता है। 

लोकतन्त्र को आप कैसे देखती हैं? 

लोकतन्त्र अपने आप में बेहद विवादास्पद मसला है। जिधर ज्यादा लोग हों, उनकी बात मानी जाएगी यह अपने आप में पक्षपातपूर्ण मामला है। यहाँ आप 51 के मुक़ाबले में 49 को रिजेक्ट कर देंगे जो कि बहुत ही पेचीदा है। एक नागरिक होने के नाते मुझे अपने देश से बस इतना चाहिए: मैं जहाँ चाहूँ, जा सकूँ, जिस समय चाहूँ, जा सकूँ। मुझको कमाने की, खाने की, ज़िंदगी अपने तरीके से जीने की आज़ादी हो, अगर मेरी कोई धार्मिक आस्था है उसे मानने की आज़ादी हो, मेरे साथ मेरे रंग, शरीर, आकार और किसी समूह के नाम पर कोई भेदभाव न हो। इन सारी चीजों में आज के समय में बहुत समझौते किए जाते हैं। हम इंसान के तौर पर कहाँ जा रहे हैं हैं मुझे नहीं मालूम।, इसमें हमारे समाज का ढांचा कितना  जिम्मेदार है मैं नहीं जानती पर यह सवाल तो है ही कि हम कितना निष्पक्ष और समतामूलक समाज बना पा रहे हैं?  

हम एक लोकतन्त्र द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों का कितना उपयोग कर पा रहे हैं, हम कितना स्वतंत्र होकर जी पा रहे हैं- यह सोचने की बात है, इन बिन्दुओं पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है कि हमसे कहाँ कहाँ गलतियाँ हुई हैं। आज़ादी के बाद का समय, खास कर 60-70 के बाद समाज के तौर पर जो हमारा क्षरण हुआ है उसे हम कैसे ठीक कर सकते हैं, इस पर हमें विचार करने की ज़रूरत है। लोकतन्त्र में समाजवाद का समावेश मुझे ज़रूरी लगता है। सीधे-सीधे शब्दों में एक ऐसा समाज जहां कोई व्यक्ति अपने लिंग, जाति, धर्म, वर्ग जैसी पहचानोन से परे एक व्यक्ति के तौर पर स्वीकृत और समादृत हो। दुनिया के सबसे बड़े और विविधतापूर्ण लोकतन्त्र होने के नाते यह एक बहुत सुंदर गुलदस्ता है, यह हमारी भी ज़िम्मेदारी है कि हम इसे सुंदर बनाए रखे। 

मंटो पर आप काम कर रही हैं? मंटो की ओर आपका रुझान कैसे आया? 

मंटो ने सारी उम्र उर्दू में लिखा। मंटो को मैंने हिन्दी के माध्यम से पढ़ा है। उन्हें पढ़ने के बाद मुझे ये लगा कि वो असल में कलम का सिपाही था, मसिजीवी था पर उसने कभी समझौते नहीं किए। इस बात ने मुझे काफी आकर्षित किया। जब मंटो के 100 वर्ष हो रहे थे उस वक़्त मुझे लगा कि एक ऐसा लेखक जिसने ताउम्र समझौते नहीं किए अपनी कहानियों में सच को झूठ का लिबास नहीं पाया, ऐसे मंटो पर कुछ काम किया जाए। 

मंटो की एक कहानी है हतक, मुझे लगता है कि विश्व में उस मुक़ाबले की बहुत कम कहानियाँ होंगी। मंटो के स्त्री किरदार बेहद सशक्त है, वो वैश्या होने के बावजूद, दूसरी बीवी होने के बावजूद बहुत समर्थ और सशक्त है। वो अपने मन का करती है। उनके यहाँ की औरत बेबस नहीं है विचार के स्तर पर वह बहुत मजबूत है। 

मुझे मंटो द्वारा गढ़े गए स्त्री चरित्र, उनकी मजबूती बहुत अपील करती है । हालांकि मैं अब तक लिख नहीं पाई हूँ। मंटो पर जब आप काम करना शुरू करते हैं तो आप डर जाते हैं। शायद और किसी चीज़ पर लिखना आसान हो पर एक ऐसे कोरे और निष्ठुर लेखक जिसने कभी चासनी में लपेट कर कुछ नहीं लिखा, उस पर लिखने के लिए बहुत कूवत चाहिए। मंटो पर जो भी लिखा गया, वह मुझे मंटो के लेखन के मुक़ाबले काफी कमज़ोर लगा। आप उस जगह पर पहुँच ही नहीं पाते। बहुत साहस चाहिए मंटो पर कुछ लिखने के लिए। उतना बेबाक होना उतना सच्चा होना आसान नहीं है। उनकी कहानी आपको झकझोर देती है। 

एक पत्रकार होने के नाते आप हम सबको, हर नागरिक को क्या कहना चावहती हैं?

बेहतर होने के लिए हम सबको चाहिए कि सबसे पहले हम अपने मन के दरवाजे पर ठक ठक करें,  अपने अंदर की बुराइयों को निकालते रहें। हम अभी अस्वस्थ हैं, हमारा समाज अस्वस्थ है, हम सब बीमारियों से ग्रस्त हैं।  हमें धीरे धीरे खुद को, अपने समाज को ठीक करना होगा। हमें हीलिंग की बहुत ज़रूरत है। एक एक बीमारी ठीक करना शुरू कीजिए। हमें खुद को, अपने समाज को स्वस्थ बनाना होगा। हमारी जीवन की कमाई यही है कि इंसान होने के नाते हमने जीवन की खूबसूरती को कितना और कैसे बनाए रखा। हम इस समाज को बहुत कुछ दे सकते हैं, और जो देकर गए हैं उन्हें ही समाज याद रखता है। आप सब, हम सब अपने जीवन से अपने जीने के तरीके से अपनी कहानी छोड़ सकते हैं। जीवन बहुत सुंदर है उस सुंदरता को बनाए रखने के प्रयास हमें अपने जीवन में ज़रूर करने चाहिए। 

हमसे बात करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया! आपको अपने सभी मौजूदा और भावी प्रोजेक्ट्स के लिए, जीवन को सुंदर बनाने के आपके प्रयासों के लिए शुभकामनाएँ!!

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *