सिटिज़न्स टुगेदर के पेज से हम एक और ज़रूरी बातचीत लेकर आप सबके सामने हाज़िर हैं। यह बातचीत जिस विषय पर है, उसे सिर्फ़ संजीदा नहीं कहूँगी क्योंकि यह हमारे समय का सच है, आधी आबादी का सच है। वह आधी आबादी जिसे उसके समाज ने उसका इंसानी हक़ ही नहीं दिया है, वह आधी आबादी, जिसे एक ओर बड़े मंचों वगैरह पर पूजे जाने की बात होती है, और घर की बंद दीवारों में जो हिंसा की शिकार होती है। इस आधी आबादी और समाज में हाशिये पर रख दिए गए अन्य वंचित तबकों के लोगों के लिए हमारी आज की मेहमान ज़मीनी स्तर पर पूरे जुझारूपन के साथ काम कर रही हैं। जिस बराबरी की उम्मीद में हम लिखते हैं, उस सुंदर बदलाव को लाने के लिए दरअसल ज़मीनी स्तर पर ही काम करने की ज़रूरत है और हमारी आज की मेहमान शबनम एक ज़िद के तौर पर यह काम कर रही हैं। उनकी यह ज़िद बेहद खूबसूरत है, एक सुंदर सुबह की उम्मीद से भरी हुई है।
शबनम 2015 से वीडियो वॉलेंटियर के साथ जुड़ी हुई हैं और समृद्ध सांस्कृतिक-राजनीतिक विरासत वाले वाराणसी क्षेत्र में बतौर वीडियो एक्टिविस्ट काम कर रही हैं। वे अब तक कई महत्वपूर्ण विषयों मसलन सफ़ाई, स्वास्थ्य, शिक्षा, जेंडर आदि पर रिपोर्टिंग कर चुकी हैं। स्त्री शिक्षा के लिए वे अतिरिक्त प्रयास कर रही हैं और अपने समुदाय में उन्होंने एक डिस्कशन क्लब बनाया हुआ है जिसके माध्यम से वे लोगों को शिक्षा के प्रति जागरूक बना रही हैं क्योंकि वे इस बात में यकीन करती हैं कि शिक्षा के ज़रिए ही बड़े बदलाव लाए जा सकते हैं।
आइए, आज हम और आप शबनम से ही जानते हैं उनकी कोशिशों के बारे में, उन ज़मीनी समस्याओं के बारे में जिनसे हम अपने बंद कमरों में बैठ आँखें फेरते रहे हैं….
सामाजिक आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने के कारण वे पढ़ नहीं पाती हैं। और यह सोच कि – लड़की है तो क्या करेगी पढ़ लिखकर? कौन सा उसे नौकरी करना है? बच्चा ही तो पैदा करना है- लड़कियों के मनोबल को भी तोड़ देता है।
शबनम, आप जिस इलाके में काम कर रही हैं, वहां शिक्षा को लेकर, खासकर महिलाओं की शिक्षा को लेकर क्या स्थिति है?
मैं जिस समुदाय में काम करती हूं वहां पर शिक्षा की स्थिति बहुत बेहतर नहीं है और महिलाओं की स्थिति तो बिल्कुल अच्छी नहीं है क्योंकि लड़कियां ज्यादातर सामाजिक स्थिति की शिकार होती हैं। सामाजिक आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने के कारण वे पढ़ नहीं पाती हैं। और यह सोच कि – लड़की है तो क्या करेगी पढ़ लिखकर? कौन सा उसे नौकरी करना है? बच्चा ही तो पैदा करना है- लड़कियों के मनोबल को भी तोड़ देता है। अगर लोग इस रूढ़िवादी सोच से बाहर निकल भी जाएँ तो आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने के कारण परिवार लड़कियों को ही शिक्षा से वंचित रखता है। आर्थिक स्थिति खराब होने का सबसे ज़्यादा अगर प्रभाव पड़ता है तो वह लड़कियों के ही ऊपर पड़ता है। अगर किसी तरह लड़की आठवीं की शिक्षा पास कर लेती है तो आगे की शिक्षा के लिए स्कूल-कॉलेज पास में ना होने के कारण भी उनकी पढ़ाई वहीं रुक जाती है क्योंकि मां-बाप, घर-परिवार, समाज आदि की इज्ज़त का बोझ सिर्फ़ और सिर्फ़ लड़कियों और महिलाओं के ही सिर पर होता है। अगर वह दूर पढ़ने जाती है तो कहीं उनकी इज्ज़त ना चली जाए – जैसे बहुत से कारण होते हैं जिसकी वज़ह से लड़कियों की पढ़ाई छूट जाती है। ऐसी स्थिति में, बहुत प्रयासों के बाद परिवार को, समुदाय को जागरूक करने के बाद लड़कियों को स्थानीय लोगों की मदद से पढ़ाया भी जा रहा था, इसी बीच कोरोना महामारी के दौरान जो लॉकडाउन लगा, उसका सबसे ज़्यादा बुरा असर लड़कियों की शिक्षा पर पड़ा। लड़कियां अपनी शिक्षा से वंचित हो गईं क्योंकि गरीब माँ-बाप के पास स्मार्टफोन नहीं था, फोन था तो नेटवर्क नहीं था। ऊंचे तबके के परिवारों में भी लड़कों की शिक्षा को प्राथमिकता दी गई। ऐसे में आप निचले तबके की स्थिति सोच सकती हैं। दलित, गरीब, भूमिहीन, मुसहर समुदाय, मुस्लिम समुदाय के निचले तबके के परिवार की लड़कियों पर इसका और भी बुरा असर पड़ा। उन्हें घर के कामों में लगा दिया गया, बहुत से परिवारों में कम उम्र की बच्चियों की शादी कर दी गई। मुझे लगता है यदि आंकड़े निकाल कर देखे जाएँ, तो इस दौरान ड्रॉपआउट हुई लड़कियों की संख्या काफ़ी अधिक पाई जाएगी। हमारे वाराणसी जनपद के चोलापुर ब्लॉक के पास एक गाँव में एक घटना हुई- वहाँ एक बेहद मेधावी बच्ची हाई स्कूल पास कर ग्यारहवीं में गई थी लेकिन तभी लॉकडाउन से स्कूल बंद हो गए। माँ-बाप ने उस बच्ची की शादी तय कर दी, बच्ची शादी नहीं करना चाहती थी, उसने इसे रोकने की काफ़ी कोशिश की और जब वह ऐसा नहीं कर सकी तो उसने ख़ुदकुशी कर ली। माँ-बाप ने चोरी-छिपे उसका सारा क्रिया-कर्म भी कर दिया। यह हालत देख मैंने अपने संगठन के साथ मिलकर लगभग 3 ब्लॉकों के 75 गांवों में कोचिंग क्लासेज़ शुरू किया। इस काम में जो बीएड की डिग्री लिए बेरोजगार थे, उनकी मदद ली गई और 20,000 से अधिक बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी गई।
वह रोने लगी और कहने लगी कि मुझे मेरा नाम नहीं पता, मुझे याद ही नहीं आ रहा है क्योंकि कभी मुझे मेरे नाम से बुलाया ही नहीं गया। मायके में अपने बाबू जी की बेटी थी, भाई की बहन थी, ससुराल में पति की पत्नी हुई और ससुर की बहू हुई और अपने बच्चों की मां हुई, ना ही मेरा कोई आधार है और ना ही मेरा कोई अपना अस्तित्व है। मैं बहुत याद करने की कोशिश कर रही हूं बहन जी, पर मुझे मेरा नाम नहीं याद आ रहा है। मेरा कोई भी नाम रख दीजिए
आप महिलाओं के बीच बेहद ज़मीनी स्तर पर काम कर रही हैं? ऐसी कौन कौन सी समस्याएं हैं जिन्हें बेहद सेंसिटिवली एड्रेस किया जाना और जिसके लिए लोगों को सेंसिटाइज़ किया जाना जरूरी है?
यह सच है कि मैं महिलाओं के साथ काफ़ी करीब से काम करती हूं। काम करने के दौरान ही मैंने यह महसूस किया कि आज भी इस पुरुष प्रधान देश में महिलाओं का कोई सम्मान नहीं है, कोई अधिकार नहीं है। उन्हें आज भी गैर बराबरी का सामना करना पड़ता है, उन्हें अपनी छोटी से छोटी खुशी को पाने के लिए भी लड़ना पड़ता है, अपना अधिकार लेने के लिए लड़ना पड़ता है। अभी हाल में ही मैं अपने समुदाय में ही श्रम कार्ड बनवा रही थी तो एक महिला से उनका नाम पूछा गया तो वह ख़ामोश थी, फिर मुझे लगा कि शायद वह कुछ सोच रही है, इसलिए जवाब नहीं दे रही है, दोबारा पूछने पर वह हंस रही थी क्योंकि वह कुछ सोच नहीं रही थी, वह अपना नाम याद करने की कोशिश कर रही थी, फिर दोबारा नाम पूछने पर वह हंस रही थी, मैंने जब ज़ोर डाला तो वह रोने लगी और कहने लगी कि मुझे मेरा नाम नहीं पता, मुझे याद ही नहीं आ रहा है क्योंकि कभी मुझे मेरे नाम से बुलाया ही नहीं गया। मायके में अपने बाबू जी की बेटी थी, भाई की बहन थी, ससुराल में पति की पत्नी हुई और ससुर की बहू हुई और अपने बच्चों की मां हुई, ना ही मेरा कोई आधार है और ना ही मेरा कोई अपना अस्तित्व है। मैं बहुत याद करने की कोशिश कर रही हूं बहन जी, पर मुझे मेरा नाम नहीं याद आ रहा है। मेरा कोई भी नाम रख दीजिए– मैं चौंक गई, मुझे झटका लगा कि क्या कह रही है यह महिला? क्या आज भी इस तरह का व्यवहार महिलाओं के साथ होता है?
इस समाज में अगर कोई महिला सही को सही और गलत को गलत कह रही है तो वह बदचलन है, चरित्रहीन है। आज भी जो लड़की स्मार्ट है, अपने मन का करती है, उसे कैरेक्टरलेस जैसे विशेषण से नवाज़ा जाता है। हम और आप भी अच्छी तरह जानते हैं – भले ही हम जागरूक हैं, पर हमें भी कई जगहों पर इस सामाजिक सोच का सामना करना पड़ता है, हम निराश होते हैं।
इसके अलावा, महिलाओं की मुख्य समस्याओं में महिला हिंसा भी एक बड़ी समस्या है जिसपर लोग बात तक करना भी पसंद नही करते क्योंकि हमारे पुरुष प्रधान देश में आज भी लोग महिलाओं को अपनी ज़ागीर समझते हैं।
महिलाओं की इस समाज में ओवर ऑल क्या स्थिति है और उन स्थितियों के लिए आप किसे ज़िम्मेदार मानती हैं?
समाज में महिलाओं की बहुत बुरी स्थिति है। देश को आजाद हुए इतने साल हो गए परंतु आज भी समाज की सोच पितृसत्तात्मक है और ऐसे में यहां महिलाओं को अपने ज़ख़्मों को हंसकर सहना पड़ता है। यह सोचने की बात है कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी क्या महिलाएं पूरी तरह आज़ाद हैं? मुझे लगता है कि इस सवाल का जवाब- ‘नहीं’ है। महिलाएं आज भी अपने परिवार, समाज में गुलामी की जिंदगी जी रही हैं। अगर लड़कियां पढ़ी लिखी हैं तो भी वह अपने मन की ज़िंदगी नहीं जी पा रही हैं क्योंकि उन्हें समाज का डर है, उन्हें अपने परिवार की ‘इज्ज़त’ की फ़िक्र है। अब थोड़ा बहुत बदलाव आ रहा है पर उसकी गति बहुत धीमी है। लड़कियां पढ़ रही हैं पर अब भी वे अपनी मनचाही नौकरी भी नहीं कर सकती हैं। रोजगार के कुछेक क्षेत्र ही हैं जिन्हें स्त्रियों के लिए परिवारों में सामान्य रूप से स्वीकार किया जा रहा है। उन्हें अपनी मर्ज़ी की करने की आज़दी नहीं है, उन्हें अपना जीवनसाथी चुनने की आज़ादी नहीं है, इसी से हम अंदाजा लगा सकते हैं कि एक औरत की स्थिति क्या हो सकती है|
आपने महिला हिंसा की समस्या की बात की, क्या आप इस संबंध में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर थोड़ी रोशनी डाल सकेंगी?
इस मामले में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बद से बदतर है। उन्हें पर्दे में रखा जाता है जबकि पर्दे का मतलब चारदीवारी नहीं, पर्दे का मतलब कपड़े से है। परंतु यहां अब इसी कपड़े के बहाने से उनकी आज़ादी पर पाबंदी लगाई जाती है। उनकी ज्यादातर शिक्षा-दीक्षा मदरसों में ही होती है, वे अपनी उच्च शिक्षा ज़ारी नहीं रख पाती हैं। शिक्षा के अभाव में उनकी सोच प्रगतिवादी नहीं हो पाती और वे रूढ़ियों को चुनौती नहीं दे पाती। वे यह मान लेती हैं कि उनका पति परमेश्वर है, वह जो कह रहा है-सही कह रहा है। उनके अंदर जो भय होता है तीन तलाक का, इसकी वज़ह से भी वह कभी उनका जवाब नहीं देती हैं और हिंसा का शिकार होती हैं। मुझे लगता है, महिलाओं का उत्पीड़न संस्कृति के हवाले से भी किया जाता है। लोगों की पहले से ही समझ बनी है कि महिलाओं का इतना ही अधिकार है, महिलाओं की हद सीमित है, उनको उतने ही हद में रहना चाहिए। इसकी वज़ह हम इस्लामिक नहीं मान सकते क्योंकि इस्लाम में कहीं ऐसी बात नहीं है। हम यह ज़रूर कह सकते हैं कि जहां पर भी महिलाओं के साथ हिंसा होती है, वहां लोग पढ़े-लिखे कम होते हैं, शिक्षा का अभाव होता है। कम पढ़े लिखे जो मर्द होते हैं वे इनसिक्योर फील करते हैं कि अगर महिलाओं को मौका मिला तो वह हमारी बराबरी में आ सकती है क्योंकि जब एक आदमी पढ़ा लिखा होता है तो उनके लिए समाज क्या कह रहा है, परिवार क्या कह रहा है वह उसको फेस करने के लिए तत्पर होते हैं लेकिन जो अनपढ़ होते हैं, जो कम पढ़े लिखे होते हैं, वे औरतों को सताने में ही अपनी शान समझते हैं, औरतों पर हिंसा करने में ही अपनी मर्दानगी समझते हैं। सबसे खास बात यह है कि जब भी महिला उत्पीड़न की बात आती है, तो हो सकता है कि अलग-अलग कम्युनिटी में उसके कारण अलग-अलग हों। कुछ लोग अपने शरीयत कानून का हवाला देते हैं, तो कुछ लोग कल्चरल वैल्यूज को बताकर प्रताड़ित करते हैं, जो कॉमन है- वह है उत्पीड़न। मुस्लिमों में साक्षरता की कमी इसका एक बड़ा कारण है, रूढ़ियों को चैलेंज करने की काबिलियत उनमें कम है।
हिज़ाब का मसला अभी हर ओर उठा है, इस मसले पर आप क्या राय रखती हैं।
अगर हम बात हिज़ाब की करें, तो होना यह चाहिए कि यदि स्त्री ख़ुद उसको प्रैक्टिस करना चाहती है तो उसमें किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए। हां, इस बात का ध्यान ज़रूर रखा जाना चाहिए कि कहीं उनपर यह फोर्स तो नहीं किया जा रहा। हम सबको यह अधिकार होना ही चाहिए कि हम क्या करें, क्या पहनें, क्या खाएं? मुझे ऐसा लगता है कि हिज़ाब के मसले को इतना बढ़ाया नहीं जाना चाहिए। इस पूरे मामले में यह भी समझे जाने की ज़रूरत है कि जो लोग इस आंदोलन में उस मुस्लिम महिला के साथ खड़े हैं, वे दरअसल हिज़ाब का समर्थन नहीं कर रहे है, बल्कि महिला के व्यक्तिगत चुनाव का समर्थन कर रहे हैं, शिक्षा के उसके अधिकार का समर्थन कर रहे हैं।
धर्म (कोई सा भी हो) स्त्रियों को कैसे देखता है? धार्मिक प्रतीकों, प्रैक्टिसेज़ के इस्तेमाल पर भी यदि आप अपनी राय हमसे साझा कर सकें।
टैग सभी को चाहिए कि मैं फलां धर्म से हूं लेकिन धर्म का ज्ञान किसी को नहीं, तो लोग फिर अपने हिसाब से तय करते हैं कि एक महिला के लिए क्या सही है क्या गलत है! हर एक धर्म में महिलाओं को बड़ी इज्ज़त दी गई है, बड़ी बुलंदी दी गई है, उनका एक बड़ा रोल है लेकिन जब हम प्रैक्टिकल लाइफ़ में आते हैं तो देखा जाता है कि हर जगह महिलाओं को धर्म के ही नाम पर कुचला जाता है। उनसे कहा जाता है कि धर्म में यह नहीं है तो धर्म में वह नहीं है लेकिन आप अगर सनातन धर्म को देखें, चाहे आप इस्लाम धर्म को देखें तो वहां पर महिलाओं का दर्जा बहुत ऊंचा है, बहुत ही ज़्यादा बुलंद है। लेकिन हमारे समाज और पूरे देश में महिलाओं के साथ सिर्फ़ और सिर्फ़ गैर बराबरी का व्यवहार किया जाता है, उन्हें मनोरंजन का सामान मात्र समझा जाता है। उनके सम्मान की कोई परवाह नहीं करता|
शिक्षा में बड़े बदलाव के लिए ज़रूरी है समाज में व्याप्त विभाजनों को खत्म किया जाए। भले ही सरकार कहती हो कि हम समावेशी शिक्षा के हिमायती हैं, लेकिन आप देखें कि कितने अमीरों के बच्चे सरकारी विद्यालय में जाते हैं। इस तरह हम अपने समाज में वर्गों का विभाजन तैयार करते हैं। जब तक ये विभाजन बने रहेंगे तब तक बराबरी का समाज बनाना मुश्किल है।
शिक्षा के अभाव में जागरूकता की कमी को भी आपने एक गंभीर समस्या बताया है, क्या कहीं कोई उम्मीद दिखाई दे रही है आपको मौजूदा समय में?
शिक्षा का मकसद जब तक जॉब पाना रहेगा और उसके साथ ही साथ जब तक हम हंगर इंडेक्स में नीचे रहेंगे तब तक आप शिक्षा को सही मायने में नहीं समझ रहे हैं। यह सीधी बात है कि गरीबों के पास जब तक दो वक्त की रोटी नहीं आ जाती है, सुबह का नाश्ता ठीक से नहीं आ जाता है, जब तक उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं हो जाती है तब तक एजुकेशन को मजबूत करने की हम कल्पना नहीं कर सकते क्योंकि उसका सीधा मतलब यह है कि जब वह आर्थिक स्थिति से मजबूत नहीं होते हैं तब तक वो गरीब परिवार अपने बच्चों को 2000 से 3000 महीने पर दिल्ली या बड़े शहरों में कमाने के लिए भेज देता है। जब आपके यहां चाइल्ड लेबर की संख्या ज्यादा हो, जब आप के यहां चाइल्ड ट्रैफिकिंग ज़्यादा हो तो आप शिक्षा पर कोई बड़ा सकारात्मक पहल नहीं देख सकते हैं। शिक्षा में बड़े बदलाव के लिए ज़रूरी है समाज में व्याप्त विभाजनों को खत्म किया जाए। भले ही सरकार कहती हो कि हम समावेशी शिक्षा के हिमायती हैं, लेकिन आप देखें कि कितने अमीरों के बच्चे सरकारी विद्यालय में जाते हैं। इस तरह हम अपने समाज में वर्गों का विभाजन तैयार करते हैं। जब तक ये विभाजन बने रहेंगे तब तक बराबरी का समाज बनाना मुश्किल है।
हमारा काम मुद्दे को सिर्फ़ हाइलाइट ही नहीं करना होता है बल्कि हम उस दिशा में आवश्यक बदलाव लाने तक लगातार प्रयासरत रहते हैं।
आप समुदाय की समस्याओं पर लगातार काम कर रही हैं थोड़ा विस्तार से यदि आप अपने काम के बारे में बात कर सकें…! आप के प्रयासों से आए बदलावों के बारे में भी बताएँ!
मैं सामुदायिक मुद्दों पर पिछले 10 सालों से वीडियो वॉलिंटियर्स के साथ काम कर रही हूँ और अब तक मैंने अनगिनत सामाजिक मुद्दों/ समस्याओं को वीडियो के माध्यम से उजागर किया है। यही नहीं, उन मुद्दों पर अपने समुदाय और लोकल सरकारी कर्मचारी की मदद से बदलाव लाने में भी सफल हुई हूँ। हमारा काम मुद्दे को सिर्फ़ हाइलाइट ही नहीं करना होता है बल्कि हम उस दिशा में आवश्यक बदलाव लाने तक लगातार प्रयासरत रहते हैं। हमारे प्रयासों से बिजली, पानी, शौचालय, आवास, महिला-हिंसा, बंधुआ मजदूरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, रोज़गार जैसे तमाम मुद्दों पर बदलाव आया है। अभी हाल ही में मुसहर समुदाय में एक परिवार के लोग गरीबी के कारण लॉकडाउन में अपनी कम उम्र की बच्ची की शादी करवाने पर मज़बूर हो गए थे। जैसे ही मुझे इसकी जानकारी मिली, मैं तुरंत उनके परिवार वालों से मिली और मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की। जब बात नहीं बनी तो मैंने समुदाय के साथ उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति जानने की कोशिश की। मुझे पता चला कि वे रोज़ी-रोटी की समस्या के साथ-साथ साथ छुआछूत और भेदभाव का भी शिकार थे। इस बेबसी में वे बच्ची का बाल-विवाह करने को मजबूर हो गए थे। ये सब जानने के बाद मैंने बड़े स्तर पर ग्राम पंचायत अधिकारी व सामाजिक कार्यकर्ताओं को बुलाकर एक बैठक की। परिवार को काफ़ी समझाया गया, बाल-विवाह के खतरे बताए गए, उन्हें जागरूक किया गया। उनके परिवार का नाम राशन कार्ड में शामिल किया गया ताकि उन्हें समय पर राशन मिलता रहे। लड़की के विकलांग पिता को पेंशन से जोड़ा गया और परिवार के लोगों को मनरेगा के तहत काम दिलवाया गया। इतने प्रयासों के बाद, हम उस बाल-विवाह को रोक सके। जल्द ही वह बच्ची शिक्षा प्राप्त करने के लिए पाठशाला भी जाएगी।
इसके अलावा, इस पेंडमिक में वीडियो वॉलिंटियर और क्विंट द्वारा चलाया गया अभियान “जान जाओ जान बचाओ” अभियान के तहत हमने अपने 2 ब्लॉकों के 10 गांव में जागरूकता फैलाने के लिए पोस्टर, बैनर, ऑडियो फैक्ट जांच किए हुए मैसेजेज़ को व्हाट्सएप के द्वारा भेज-भेज कर लोगों में जागरूकता का प्रसार किया। पहले समुदाय के लोग वैक्सिनेशन के लिए आगे नहीं आ रहे थे क्योंकि तमाम तरह की भ्रांतियां एवं अफवाहें उन तक अलग-अलग माध्यमों से पहुँच रही थी जिसके डर से समुदाय के लोग टीकाकरण नहीं करवा रहे थे। उनके इस डर को दूर करने के लिए हम लोग अपने गांव में लगातार बैठक करते रहे, तब जाकर हमारे समुदाय के लगभग 10 गांव के 5000 से ज्यादा लोगों ने वैक्सिनेशन कराया।
ऐसा ही एक बड़ा मामला बंधुआ मजदूरी का था। भदोही जनपद के औराई ब्लॉक के चंद्रपुरा गांव के मुसहर परिवार कोरोना महामारी के दौरान लगे लॉकडाउन के कारण रोजी-रोटी की कमी से परेशान होकर बंधुआ मजदूरी करने को विवश हो गए। ठेकेदारों द्वारा 10,000 महीने का लालच देकर 16 मजदूरों को उत्तर प्रदेश से ले जाकर महाराष्ट्र के शोलापुर में गन्ने के मील में बंधुआ मजदूरी कराया जाने लगा। मज़दूरों द्वारा पैसे मांगने पर मालिक ने पैसे देने से मना कर दिया, बोला तुम्हारे ठेकेदार को ₹600000 दे दिया गया है अब तुम्हें यहां सिर्फ और सिर्फ काम करना है। उन मज़दूरों ने परेशान होकर किसी तरह चोरी-चुपके अपने घर पर फोन कर पूरी समस्या बताई और जैसे ही इस समस्या की जानकारी मेरे सहयोगी अनिल कुमार जी के माध्यम से मुझे लगी तो मैं और मेरे सहयोगी तत्काल समुदाय में पहुंचे और समुदाय की समस्याओं को सुनने के बाद मज़दूरों को छुड़ाने के लिए लोकल थाने पर गए। समुदाय के लोगों को थाने में डंडों से मार कर गाली गलौज देकर भगाया गया क्योंकि वह मुसहर समुदाय से थे, जिसे हमारा सभ्य समाज गंदा समझता है। उसके बाद हमने समुदाय को संगठित व एकजुट करते हुए बैठक की और एक आवेदन तैयार किया गया। हमारे सहयोगी उस आवेदन को लेकर तहसील पर गए और वहां पर आवेदन दिया लेकिन वहां भी कोई सुनवाई नहीं हुई फिर उन्होंने जिला मुख्यालय पर जाकर डीएम साहब को आवेदन दिया और डीएम साहब से भी सिर्फ़ उन्हें आश्वासन ही मिला, कोई कार्यवाही नहीं हुई। ऐसे में हम अपने सहयोगी के साथ लखनऊ ऑफिस गए जहां पर वीडियो वॉलिंटियर के उत्तर प्रदेश के स्टेट कोऑर्डिनेटर अंशुमान सिंह जी की मदद ली गई और फिर उन्होंने महाराष्ट्र के शोलापुर के थाना इंचार्ज अतुल भोसले जी से बात की। काफी मिन्नतों के बाद उन्होंने कॉन्फ्रेंस कॉल पर बयान दर्ज किया। उस गन्ने मिल पर छापा मारा गया जहां से मजदूरों को सुरक्षित थाने पर लाया गया और फिर उन्हें टिकट करा कर भदोही स्टेशन भेजा गया जहां पर हमारे सहयोगी अनिल जी ने उन मज़दूरों को स्टेशन से रिसीव किया और उन सबको सुरक्षित उनके घर पहुंचाया।
समुदाय की जो दिक्कतें हैं जिन्हें आप एड्रेस कर रही हैं, उनका समाधान अधिकांशतः सरकारी चैनलों के माध्यम से होता होगा, इस पूरी प्रक्रिया में सरकारी तंत्र के रवैए को आप कैसा पाती हैं?
सरकारी तंत्र का रवैया जगज़ाहिर है। बिना दबाव के, बिना भेदभाव के सामान्य तरीके से कोई भी कार्य सरकारी तंत्र करता ही नहीं है। समुदाय के लोग अपने हक व अधिकारों के प्रति जागरुक नहीं हैं और उन्हें सरकारी योजनाओं की जानकारी नहीं है और सरकारी तंत्र का समुदाय के प्रति भेदभाव का नज़रिया है। भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है और समुदाय की पहुंच सरकारी तंत्रों तक नहीं है जिससे वह अपनी मूलभूत सुविधाओं से वंचित होते हैं।
समुदाय के लोगों को राजनीति में बस एक वोटबैंक की तरह इस्तेमाल किया जाता है। जब इनकी समस्याओं के समाधान की बात आती है तो राजनेता और उनकी राजनीति बहुत दूर खड़ी दिखाई देती है।
स्थानीय राजनीति या फिर लोगों से कैसे आपको सहयोग मिल रहा है?
समुदाय के लोगों को राजनीति में बस एक वोटबैंक की तरह इस्तेमाल किया जाता है। जब इनकी समस्याओं के समाधान की बात आती है तो राजनेता और उनकी राजनीति बहुत दूर खड़ी दिखाई देती है। राजनीति से सहयोग के नाम पर बस आश्वासन मिलता है और स्थानीय लोगों से भी बहुत कम मात्रा में सहयोग मिलता है क्योंकि वह उन मुद्दों पर बहस नहीं करना चाहते जो उनके फ़ायदे का ना हो।
बनारस शहर ख़बरों में रहने वाला शहर है, बीते कुछ समय में आप वहां क्या बदलाव पाती हैं, उन बदलावों को आप कैसे देखती हैं? आप इस शहर में और किस तरह का बदलाव चाहती हैं?
बनारस जैसे शहर में बदलाव की बात करें तो पिछले कुछ वर्षो में क्रांतिकारी बदलाव आए हैं, जैसे सड़क, पानी, बिजली, चिकित्सा के क्षेत्र में स्थिति पहले से बहुत बेहतर हुई है लेकिन मुख्य रूप से समस्या हिंसा को लेकर है और उसमें भी महिला हिंसा की समस्या काफ़ी गंभीर है। इसके साथ ही, हिंदू मुस्लिम एक बड़ा विषय बना है, मंदिर मस्जिद भी एक विषय बना है जो चिंतनीय है। और रोज़गार की भी बड़ी समस्या है। हालांकि कुछ फैक्ट्रियों के लगने की शुरुआत हो चुकी है पर फिर भी मुख्य समस्या यहां के लोगो के लिए रोज़गार ही है।
आपको क्या लगता है बदलाव का रास्ता कहां से आएगा…??
मेरा मानना है कि बदलाव मुख्य रूप से अच्छी शिक्षा, महिला सुरक्षा, रोज़गार और स्वस्थ राजनीति से ही संभव है।
संपादकीय नोट: ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ को एक राजनीतिक नारे की शक्ल में हम सबने सुना है, पर इस पर लहालोट होने की ज़रूरत नहीं है। बजाय इसके यह जानने और समझने की ज़रूरत है कि यह लड़ना हमारी चॉइस नहीं, हमारी ज़रूरत है। और यह भी कि इस दुनिया को ऐसा होना ही नहीं चाहिए जहां किसी को अपने इंसानी हक़ के लिए लड़ाई लड़नी पड़े। और ऐसा संभव हो सके एक दिन -इस दिशा में शबनम लगातार कोशिशें कर रही हैं!
शबनम जो कोशिशें कर रही हैं, वह एक बड़ा सपना लिए हुए है। उस सपने को सच बनाने के लिए हमें, आपको, सबको कोशिश करनी है। हमारी कोशिशों को जब एक दूसरे का हाथ मिलेगा, साथ मिलेगा, उसी रोज़ उम्मीदों वाली वह सुबह भी आएगी जिसकी रोशनी सब पर बिना फ़र्क गिरेगी। और हमें यह याद ज़रूर रखना है कि ‘वह सुबह हमीं से आएगी!’