**हम न निकहत हैं न गुल हैं जो महकते जावें
आग की तरह जिधर जावें दहकते जावें**
मीर हसन साब का यह शेर हमारे आज के मेहमान के परिचय के लिए काफ़ी मुफ़ीद है।
बहरहाल, आज ऑफ़ दी सिटिज़न्स के प्लेटफॉर्म से हम जिस गुफ़्तगू में शामिल हो रहे हैं, वह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि हम आज ऐसे शख्स से बातचीत कर रहे हैं, जिन्होंने अपने आस पास की दुनिया को बेहतर बनाने के लिए अनिश्चितताओं का चुनाव किया, जो यकीन करते हैं कि दुनिया को समझने का, उसे बेहतरी से बदलने का रास्ता किताबों से होकर गुज़रता है। ‘गाँव गाँव पुस्तकालय‘ का एक खूबसूरत सपना वे सिर्फ देख नहीं रहे उसे सच बनाने की मुहिम में लगे हुए हैं। सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन उनके बेहतरीन प्रयासों का एक खूबसूरत परिणाम है।
अभी तक बिना नाम ज़ाहिर किए जिस व्यक्तित्व के सुंदर सपने और उसे हक़ीक़त में तब्दील करने की कोशिशों की बात की गई– उनका नाम है शाकिब अहमद! दोस्त, साहित्य और चाय से होते होते फ़ातिमा शेख़ पुस्तकालय, सावित्रीबाई फुले पुस्तकालय, रुकय्या सख़ावत पुस्तकालय के उनके इस सफ़र को अभी बहुत आगे जाना है…
आज हम सिटिज़न्स टुगेदर के पेज से शाकिब साब से बावस्ता होंगे, इल्म की रोशनी से उजास फैलाने की इस कोशिश के पीछे के जज़्बातों को हम उन्हीं के मार्फ़त जानेंगे, और जानेंगे उनके आइडियाज़, उनके सपनों को भी…
1. इस डिजिटल होते युग में लाइब्रेरी खोलने की कल्पना करना और फिर बच्चों के लिए सच में पुस्तकालय खोल देना- यह विचार कहाँ से आया और कैसे विकसित हुआ?
लाइब्रेरी का आइडिया बहुत ही पुराना है। शायद 5-6 साल पुराना। दरअसल हम कुछ लोग 5-6 वर्षों से किशनगंज में एक साहित्यिक ग्रुप चला रहे थे- जिसका नाम था “दोस्त साहित्य और चाय”। हमारे पास साहित्यिक ग्रुप तो था लेकिन किताबें नही थी। हम किताबों की तलाश में मारे- मारे फिरते थे। एक दिन ग्रुप की साप्ताहिक बैठकी के दौरान ख़्याल आया कि अगर हमारे शहर में भी एक लाइब्रेरी होती तो कितना अच्छा होता। बस वहीं से ज़ेहन के किसी कोने में लाइब्रेरी का आइडिया घर कर गया और वक़्त के साथ- साथ बढ़ता गया।
2. अब तक कितनी लाइब्रेरीज़ खोली जा चुकी हैं और वे किन इलाकों में हैं?
अब तक हम किशनगंज के तीन अलग अलग गांवों में तीन लाइब्रेरी शुरू कर चुके हैं। पहला पुस्तकालय हमने पोठिया प्रखंड के दामलबाड़ी गाँव में फ़ातिमा शेख़ पुस्तकालय के नाम से खोला था। दूसरा पुस्तकालय पोठिया प्रखंड के ही हालदागाँव में सावित्री बाई फुले पुस्तकालय के नाम से और तीसरा कोचाधामन प्रखंड के जनता कन्हैयाबाड़ी में रुकय्या सख़ावत पुस्तकालय के नाम से चल रहा है।
3. लाइब्रेरी क्या किसी ख़ास उम्र सीमा के लोगों के लिए है या यह सबके लिए खुली हुई है?
शुरुआत में उम्र की किसी सीमा जैसे कोई ख़यालात नहीं थे। पर, समय के साथ साथ यहाँ के परिवेश के स्वभाव को समझते हुए हमने इसे स्कूल कॉलेज जाने वाले विद्यार्थियों तक सीमित रखा है। हम यह भी समझते हैं कि आने वाले समय में बदलाव के बड़े वाहक यही बच्चे होंगे।
4. इन पुस्तकालयों में किस तरह की किताबें हैं?
जब हमने अपने इस आइडिया पर काम करना शुरू ही किया था तो इस तरह के क्लासिफिकेशन पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया था। उस वक़्त हमने आलोचना व गंभीर अध्ययन समझे जाने वाले क्षेत्र की बहुत सारी किताबें मंगा ली थीं। पर, समय के साथ-साथ, यहाँ के परिवेश व लोगों को समझते हुए, हम अपने विचारों और मक़सद में और ज़्यादा स्पष्ट हुए। हमने इस बात को भी समझा कि किताबों से लोगों को जोड़ने के लिए ज़रूरी है कि हम सहज, सुबोध साहित्य लोगों तक पहुंचाएँ और उनमें पहले पढ़ने की आदत विकसित करें।
5. यह जो खूबसूरत सपना आपने बुना है जिसे आप अपनी कोशिशों से हक़ीक़त बना रहे हैं, इस सफ़र पर क्या आपकी कोई टीम भी है जो आपको मदद कर रही है?
जी, बिलकुल। जैसा मैंने शुरू में ही बताया – “दोस्त साहित्य और चाय” नाम से हम कुछ लोग एक साहित्यिक ग्रुप चला रहे थे। वे दोस्त “गाँव गाँव पुस्तकालय” के ख़्वाब के भी साथ हैं।
6. सीमांचल का इलाका जहाँ आज भी विकास कोसों दूर है, वहां लाइब्रेरी चलाने का अब तक कैसा अनुभव रहा है? समाज इस पहल को किस तरह ले रहा है?
अब तक का अनुभव बहुत ही जटिलताओं से भरा हुआ रहा है। एक ओर लाइब्रेरी को लेकर हमें बच्चों की आंखों में जो चमक दिखती है, वह हमें इस मुहिम में टिकाए हुए है तो दूसरी ओर समाज का हमारे प्रति उपेक्षित रवैया काफी ज़ेहनी थकावट देने वाला है। हमारे यहां सामाजिक और राजनीतिक चेतना न होने की वजह से नकारात्मक ऊर्जा आबोहवा में फैली हुई है। सच कहूं तो हमारी इस पहल का समाज में फ़िलहाल बहुत कम असर नज़र आ रहा है। कुछ तो हमारी नाकामी है कि हम समाज तक अपनी बात नही पहुंचा पा रहे हैं और कुछ वज़ह यह भी है कि यहां के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी हमारी पहल को जानते हुए भी उदासीन बने हुए हैं। हमारे काम को न तो यहां का लोकल मीडिया और न ही कोई तथाकथित बुद्धिजीवी अप्रीसिएट कर रहा है। हमारी यह मुहिम फ़िलहाल तो लोकल डिस्कशन से ही बाहर है। वैसे भी जो काम हम कर रहे हैं वह इस समाज के लिए 50 साल आगे की बात है। इसलिए हम इस मुहिम के प्रति समाज की उदासीनता से ज़रा भी व्यथित नहीं हैं।
7. बच्चों को यह लाइब्रेरी का आइडिया कितना भा रहा है? क्या वे आपसे पुस्तकों की मांग करते हैं? कोई ऐसा मौका, जिसका आप जिक्र करना चाहेंगे?
लाइब्रेरी को लेकर बच्चों में कमाल का रुझान है। लाइब्रेरी को लेकर बच्चों की आँखों में जो चमक है वही आज तक इस पुस्तकालय अभियान को जिंदा रखे हुए है वरना यह अभियान कब का बंद हो गया होता। ख़ास कर लड़कियों में लाइब्रेरी को लेकर जो मोहब्बत है, उसे मैं बयां नही कर सकता।
हां, कई दफ़े ऐसा हुआ है जब बच्चों ने हमसे किताबों की मांग की है। जैसे एक बार रुकय्या सख़ावत पुस्तकालय के 2 बच्चों ने हैरी पॉटर की किताब तो एक बार फ़ातिमा शेख़ पुस्तकालय के एक 8 साल के बच्चे ने हॉरर स्टोरी की किताब की मांग की थी।
8. लाइब्रेरी का नाम फ़ातिमा शेख़, क्या यह देश की पहली मुस्लिम टीचर को श्रद्धांजलि है या फ़िर इस नामकरण के पीछे कोई और विचार है?
जी बिलकुल, हमने अपने पहले पुस्तकालय का नाम देश की पहली मुस्लिम टीचर फ़ातिमा जी के नाम पर ही रखा है। यह हमारी तरफ से उनको एक श्रद्धांजलि है। दरअसल मुस्लिम समाज में महिला नायिकाओं की कमी है और जो हैं भी, उनका कहीं ज़िक्र नही आता। हमारी कोशिश है कि हम जितनी भी लाइब्रेरी शुरू करें, उनका नाम बहुजन समाज की महान महिला नायिकाओं के नाम पर रखा जाये। इसलिए हमारे अब तक के तीनों पुस्तकालय का नाम महान महिला नायिकाओं के नाम पर ही रखा गया है।
9. आपने सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन को रजिस्टर कर लिया है, इसके लिए हमारी ओर से बहुत सारी मुबारकबाद स्वीकार करें। सीमांचल के दूसरे इलाके और अन्य हिस्सों में इसे ले जाने का क्या प्लान है?
आपका बहुत- बहुत शुक्रिया। हमारा प्लान तो बहुत कुछ करने का है। हमारा इरादा है कि हम सीमांचल के हर पंचायत में लाइब्रेरी शुरू करें और इतना ही नहीं, हमारी कोशिश है कि हम अपनी साप्ताहिक गतिविधियों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में एक सार्थक परिवर्तन ला सकें। लेकिन किसी भी अभियान को लम्बे समय तक सुचारू रूप से चलाने के लिए फंड और संसाधनों की ज़रूरत होती है, जो हमारे पास बिलकुल भी नहीं है। अब तक हमारे तीनों पुस्तकालय हमारे ग्रुप के सीमित संसाधनों से ही चल रहे हैं। हमें पुस्तकालय अभियान के लिए फंड और संसाधनों की बेहद ज़रूरत है। इंशा अल्लाह अगर हम भविष्य में फंड और संसाधनों का इंतजाम कर पाए तो एक दिन “पुस्तकालय अभियान” को हम सीमांचल के कोने-कोने तक पहुंचाएंगे।
10. आज के बच्चे कल हमारे भविष्य हैं- पुस्तक और पुस्तकालय में उनकी इस दिलचस्पी से समाज में क्या कुछ बेहतर किया जा सकता है?
जिस दौर में किताबों को जलाया जा रहा है, उस दौर में किताबों को संग्रहित करना हमारा फ़र्ज़ है। आज जिस तरह से डिजिटल माध्यम से प्रोपेगेन्डा फैलाया जा रहा है, उसे बस पुस्तक और पुस्तकालय के माध्यम से ही काउंटर किया जा सकता है। बच्चों की दिलचस्पी पुस्तक और पुस्तकालय में जगाकर हम समाज में बड़ा बदलाव, इवॉल्यूशन ला सकते हैं। आज हमारे समाज में इवॉल्यूशन की सख्त ज़रूरत है और यह इवॉल्यूशन किताबों के ज़रिए ही संभव है। और इतना ही नहीं, मेरा मानना है कि इस इवॉल्यूशन का नेतृत्व हमारे बच्चे ही करेंगे।
संपादकीय टिप्पणी: वेणु गोपाल की एक कविता है- “न हो कुछ भी, सिर्फ़ सपना हो, तो भी हो सकती है शुरुआत, और वह एक शुरुआत ही तो है, कि वहाँ एक सपना है! “
शाकिब आप न सिर्फ़ एक खूबसूरत सपने को जी रहे हैं, वरन उसे अमली जामा पहनाने की राह पर भी अग्रसर हैं… आपको इस सफ़र के लिए खूब सारी शुभकामनाएँ और हमें वक़्त देने लिए बहुत शुक्रिया…!