जेंडर बराबरी, लैंगिक विमर्शों की तमाम बहसों के बीच हम सभी एक रॉन्ग वर्ल्ड में जी रहे हैं, जिसे राइट बनाने की ज़िम्मेदारी बेशक हम सभी की है और इसके लिए ज़रूरी है कि हम ख़ुद के भीतर एक बेहतर समझ पैदा करें और उसे हर रोज़ बेहतर करते रहें। हमारी लर्निंग और अनलर्निंग की कोशिशें साथ साथ चलती रहें- यह भी बहुत ज़रूरी है।
जेंडर और सेक्स बहुत हद तक हमारे लिए टैबू है जिस पर बात करने से हम बचते हैं और इसीलिए डेमोक्रेटिक कहलाए जाने की आकांक्षा रखते हुए भी फेमिनिस्ट हो जाना थोड़ा ज़्यादा लगता है इस समाज को!
“जेंडर देह का लिबास है, देह जिसका एक लिंग है। इस लिबास को पहनकर हम ताउम्र जेंडर की भूमिका को निभाते हैं और फिर बार बार इसे परफॉर्म करते हुए जेंडर रूढ़ियां बनाते हैं।”
(आलोचना का स्त्री पक्ष पद्धति, परंपरा और पाठ: सुजाता- ‘स्त्रीवाद की अवधारणाएं और साहित्य’)
जेंडर एक सोशल कंस्ट्रक्ट है, सेक्स हमें जन्म से मिलता है। स्त्रियां पैदाइश से रसोई के लिए उपयुक्त नहीं होतीं और पुरुष रसोई का काम करने से स्त्री नहीं हो जाते। हमारे रहने के तरीके एक सोशल कंस्ट्रक्ट के तौर पर तैयार किए जाते हैं।
जेंडर पूरी तरह से एक सामाजिक निर्मिति है। इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि तलवार उठाने वाली मर्दानी है (खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी) जबकि दूध पिलाती स्त्री कमज़ोर है। (अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी।)। अब देखिए न, ‘ताकत’ इस समाज के लिए ‘पुरूषवाचक’ स्वभाव है जबकि ‘ममता’ एक ‘स्त्रैण’ स्वभाव है। इस सोशल कंस्ट्रक्ट से यह समाज इतना ऑब्सेस्ड है कि किसी भी इंसान को स्वाभाविक तौर पर स्वीकार कर पाना इसके लिए संभव नहीं हो पाता।
विमर्शों के इस दौर में भी हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगियों में बेहद जरूरी चीज़ को दरकिनार कर देते हैं। दो लोगों के साथ होने को भी हम संस्थाबद्ध किए बिना नहीं रहते। हमारे लिए साहचर्य से कहीं ऊपर हैं संस्थाएं और ये संस्थाएं सर्वथा पुरुष दृष्टि से संचालित होती हैं। इन संस्थाओं में एक मुकम्मल इंसान के तौर पर स्त्री का प्रवेश वर्जित ही रहा है। एक स्त्री की ज़रूरतें इस संस्था के लिए कतई मायने नहीं रखतीं। भावनाओं को तो वैसे भी हेय नज़र से देखा जाता है यहां। यहां स्त्री की ओर हमेशा एक तिरछी नज़र रहती है।
दो अलग शारीरिक संरचना के रूप में पैदा हुए स्त्री और पुरुष की मानसिक संरचना तैयार करने में समाज की मानसिकता और उससे निर्मित सोशल कंस्ट्रक्ट की बड़ी भूमिका होती है। लड़का गाड़ियों और बंदूक से खेलेगा और लड़कियां गुड़िया और किचेन सेट से। जब लड़कियां गुलाबी रंग पहनें और लड़के नीला, जब बचपन में खिलौने अलग कर दिए जाते हैं, जब बड़ी सहजता से लड़कियों को घरेलू कामों से जोड़ दिया जाता है और लड़कों को बाहर की दुनिया में विचरने का मौका दिया जाता है, जब बड़ी आसानी से घर की बच्ची से चाय बना कर लाने की उम्मीद की जाती है, जब बड़ी सावधानी से उन्हें खुद को नज़रंदाज़ करते हुए भी दूसरों का ख्याल रखना सिखाया जाता है, जब बड़े सचेत रूप से उनके हंसने- बोलने, उठने- बैठने सबके तरीकों को नियंत्रित किया जा रहा होता है और लड़कों को रोने तक के सामान्य मनोभाव को दबा ”साहसी” बनने के दबाव में रखा जाता है, तभी समाज उन दो भिन्न शारीरिक संरचनाओं के मनोविज्ञान को बड़ी चालाकी से गढ़ रहा होता है और हो न हो, यही मनोविज्ञान इन दो प्रजातियों को सामाजिक स्पेसों को भी अलग- अलग तरीके से प्रयोग करना सिखा देता है।
“लड़के के लिए सड़क एक खुली जगह है जिसपर वह कहीं भी रुककर खड़ा हो सकता है… इसके विपरीत लड़की के लिए सड़क एक स्थान से दूसरे स्थान तक कम से कम समय में जाने का माध्यम है।… ये जगहें लड़कों के लिए उनकी स्वतंत्रता विस्तार का साधन बन जाती हैं। लड़कियों के साथ ऐसा नहीं होता, बल्कि जैसे जैसे वह बड़ी होती है, सड़क पर पहले से ज्यादा सिमटकर चलना ज़रूरी पाती है और इस तरह सीखती है कि सड़क उसके लिए असुरक्षित जगह है जिससे उसे न्यूनतम या सिर्फ ज़रूरत भर का वास्ता रखना है।”
(चूड़ी बाज़ार में लड़की: लेखक- कृष्ण कुमार)
स्त्रियां काम करती हैं, ठीक है पर ‘घर’ प्रभावित नहीं होना चाहिए। लिखती हैं, बेशक लिखें पर ‘घर’ प्रभावित नहीं होना चाहिए- क्योंकि घर बनाने, बिगाड़ने (चाहे पिता का हो, या पति का- क्योंकि स्त्रियों का अपना कोई पता नहीं होता) की सारी ज़िम्मेदारी स्त्री की ही है। कोई रुक कर पूछे कि कौन सा ‘घर’? क्या यह वह जगह है जिसने उसके ‘होने को’ कभी स्वीकार ही नहीं किया, जिसने उसे उसकी जरूरतों पर बात करने तक की आज़ादी नहीं दी? जवाब में या तो चीखा चिल्ली होती है या फ़िर एक ख़ामोशी। और फिर सब कुछ पूर्ववत चलता रहता है।
एक सामाजिक मिथ गढ़ा गया है जिसके जरिए स्त्रियों के मानस को भी नियंत्रित करने की कोशिश की गई है। हम सभी जानते हैं कि स्त्रियों के शरीर और मन को समाज और परिवार द्वारा नियंत्रित करने की कोशिशें लगातार की जाती रही हैं। यौन शुचिता का प्रश्न भी यहीं से पैदा होता है। प्रेम में एक का दूसरे के आनंद की वस्तु हो जाना एक अजीब सी गिजगिजी व्यवस्था को पानी देना है। सुमन केशरी अपनी एक कविता में लिखती हैं:
क्या कभी किसी ने धरती से पूछा
वह किसके बीज को धारण करेगी?
प्रेम में सहजता की मांग करना, बराबरी की मांग करना, सुनना, सीखना ज़रूरी है। बहुत कुछ अनलर्न करना ज़रूरी है ख़ुद को पाने के लिए, दूसरों के उपमानों के ज़रिए खुद को देखना बंद करना जरूरी है खुद को पहचानने के लिए। रसोई और बिस्तर की जो जगहें उसके लिए बनाई गई हैं जेंडर्ड कंडिशनिंग के तहत उन्हें डीकंस्ट्रक्ट करना जरूरी है अपना ठीया बनाने के लिए। नीलेश रघुवंशी अपनी एक कविता में लिखती हैं:
मैने अपनी सारी जड़ें
धरती के भीतर से खींच लीं और
चिड़िया की तरह उड़ने लगी
मैं इस दुनिया को चिड़िया की आंख से देखना चाहती हूं।
दिक्कत यहाँ यह भी है कि यहां हर चीज को पूजनीय (?) बना कर बहस से बाहर कर दिया जाता है। इस राजनीति को समझे जाने की जरूरत है और स्त्रीवादी आंदोलन से निकले नारे “पर्सनल इज पॉलिटिकल“ को भी याद रखने की जरूरत है। पूजनीय (?) वाली इस संस्कृति में स्त्रियों का ऑब्जेक्टिफिकेशन बेहद आम है, जब कि ज़रूरी है कि उन्हें सुना जाए, उनके अनुभवों को दर्ज़ किया जाए क्योंकि
“स्त्री सिर्फ़ दृश्य मात्र नहीं है। जो लिख रही है उसे पढ़ा जाए, जो कह रही है उसे सुना जाए ध्यान से। … साथ चलिए, सुनिए, चुप रहना भी सीखिए, सिखाते रहना ही नहीं, सीखना भी सीखिए – जैसा अनामिका अपील करती हैं:
सुनो हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई नई सीखी हुई भाषा!”
(आलोचना का स्त्री पक्ष पद्धति, परंपरा और पाठ: सुजाता- ‘प्रेम भी इसी दुनिया की शै है’)
तमाम जेंडर रूढ़ियों को तोड़ना लिंग के प्रति एक हद तक ऑब्सेस्ड इस समाज के स्वास्थ्य के लिए बहुत ज़रूरी है। पूजनीय बना दी गई चीज़ों को तोड़ना जरूरी है और उन्हें जीवन से जोड़ना, बराबरी की कामना से जोड़ना जरूरी है।
तो, समझिए इस सोशल कंस्ट्रक्ट को और इसके ज़रिए की जाने वाली राजनीति को भी समझिए। पितृसत्ता को समझिए और समझिए उस राजनीति को जो आपको एक अदद इंसान मानने की जगह ‘अन्य’ की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है। समाजीकरण की उस निर्मिति को तोड़िए जो ग्लोरीफिकेशन के जाल में आपके इंसानी हक़ को मार रहा है। इन साजिशों को समझिए, खुद को अपनी नज़र से देखिए, अपने अनुभव कहिए, अपने हक़ को मांगिए – घर और घर के बाहर की सड़कें जो कहीं भी जा सकती हैं, सब पर आपका हक़ है…!! और इन सबके बीच हम पाश को हमेशा याद कर सकते हैं :
हम लड़ेंगे साथी
जब तक दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाकी है
हम लड़ेंगे
कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं।
Absolutely right
बहुत शुक्रिया शबनम आपका 🙏🏻