लाइब्रेरी मोमेंट एक ख्याल से शुरू हुआ होगा, वह ख्याल आज हकीकत बन चुका है। पर हम सिर्फ परिणाम देख पाते हैं, जर्नी नहीं देख पाते, इसके पीछे की दिक्कतों,चुनौतियों को नहीं देख पाते, शायद हमारी दिलचस्पी भी नहीं होती।
ऑफ़ द सिटीजन्स के पेज पर आइए आज सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन के साकिब से बातें करते हैं और जानते हैं उस ख्याल के हकीकत बनने की यात्रा के बारे में। ऑफ़ द सिटीजन्स के पेज पर हम सीमांचल लाइब्रेरी के बारे में साकिब से पहले भी बात कर चुके हैं। पर इस बार हम बातचीत को उन चुनौतियों पर केंद्रित रखेंगे जिनका सामना साकिब और उनकी टीम के साथी कर रहे हैं इस सुंदर ज़िद को बचाए रखने के लिए जिसका नाम है: सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन
साकिब, सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन नाम से आपका जो फाउंडेशन है, उसको खड़ा रखने की दिशा में जो सामाजिक चुनौतियाँ हैं, पहले आप हमें वो बताएं!
उत्तर :- फाउंडेशन शुरू करने के दौरान से लेकर अभी तक सामाजिक चुनौतियाँ ज्यादा नहीं बदली हैं। दरअसल हमारा समाज हमारी पहल लाइब्रेरी मूवमेंट के लिए तैयार ही नहीं है। लगभग डेढ़ वर्षों की उम्र वाले हमारे लाइब्रेरी मूवमेंट के प्रति समाज का नज़रिया बहुत नहीं बदला है। आज भी हम धार्मिक कट्टरता और जातिगत भेदभाव से दो- चार हो रहे हैं। एक उदहारण के तौर पर मैं बताऊँ तो जब हम लोग सावित्री बाई फुले लाइब्रेरी एक दलित बस्ती में शुरू करने जा रहे थे तो कुछ तथाकथित अपर कास्ट सुरज़ापुरी मुझे मना कर रहे थे कि क्यों फालतू में दलितों के पीछे दिमाग लगा रहे हो? इतना ही नहीं कुछ दलितों ने कहा कि लाइब्रेरी मुसलमान लड़के चला रहे हैं तो ज़रा बच्चों को सोच समझकर भेंजे। खैर ये सारी चुनौतियाँ तो हैं ही लेकिन इन डेढ़ वर्षों के दौरान हमें कुछ बेहद ही खूबसूरत स्थानीय लोग भी मिले जो हर चुनौती और परेशानी में हमारे साथ खड़े रहे हैं। धीरे- धीरे ही सही लेकिन हमारे समाज के कुछ लोग लाइब्रेरी मूवमेंट के प्रति सही-गलत जो भी हो एक राय बना रहे हैं।
एक ऐसे समाज में जहां अब भी लड़कियों को पढ़ाना गैर ज़रूरी माना जाता है, वहाँ की लड़कियों को लाइब्रेरी तक लाने के पीछे की क्या चुनौतियाँ रही हैं?
उत्तर:- लड़कियों को घर से निकालना ही एक बड़ी चुनौती है फिर उन्हें लाइब्रेरी तक लेकर लाना तो और भी बड़ी चुनौती है। पर मैं इतना ज़रूर कहूँगा कि हमारी लाइब्रेरी का curriculum इतना सशक्त है कि एक बार बस लड़कियों को लाइब्रेरी तक लाने में परेशानी होती है। जब एक बार लड़कियां लाइब्रेरी आ जाती हैं फिर लड़कियां लाइब्रेरी की हो कर रह जाती हैं। दरअसल लाइब्रेरी वह जगह है जहाँ कोई किसी को जज नही करता, लाइब्रेरी में लड़कियों को सुना जाता है, लड़कियां यहाँ खुद को सुरक्षित महसूस करती हैं और यही हमारी सबसे बड़ी कामयाबी है और यही हमें साहस देता है।
लड़कियों की बात से आगे बढ़कर यदि हम इसे बड़े पैमाने पर भी देखें तो भी भी पढ़ना, जानना इस समाज के लिए ज़रूरी नहीं रहा है, नौकरी पाने की बात के अलावा, ऐसे में आप इन चुनौतियों के बारे में विस्तार से बताएं?
उत्तर:- लाइब्रेरी को लेकर हमारी विचारधारा बिलकुल स्पष्ट है कि हम अपनी लाइब्रेरी के माध्यम से किसी को डॉक्टर या सरकारी बाबू नहीं बनवा सकते हैं। दरअसल हमारा लाइब्रेरी मूवमेंट ग़ालिब साहब के शेर “बस कि दुश्वार है हर एक काम का आसां होना, आदमी को भी मयस्सर नही इंसां होना” को आधार मानकर आगे बढ़ रहा है। जब विचारधारा को लेकर स्पष्टता हो तो चुनौतियाँ कुछ कम हो जाती हैं। कई बार ऐसे लोग आते हैं जो सरकारी बाबू बनना चाहते हैं। उन्हें इन्सान बनाने में ज्यादा दिलचस्पी नही होती है वे चले जाते हैं। दरअसल सीमित संसाधन होने की वजह से हमारा कैनवास थोड़ा छोटा है। इसलिए जो बच्चे लगातार आ रहे हैं और इन्सान बने रहने में जिनका यकीन है, फ़िलहाल हम उन पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं।
आपका फाउंडेशन समाज में बेहतरी के लिए कई तरह की गतिविधियां कर रहा है, साथ पढ़ने, साथ खाने जैसी गतिविधियां उनमें एक हैं, आज भी जहां घरों में स्त्री पुरुष साथ नहीं खाते, अगड़ा-पिछड़ा जैसे तमाम विभाजन मौजूद हैं, वहाँ ऐसी गतिविधियों को करने को कैसा रिस्पॉन्स मिल रहा है?
उत्तर:- कोई भी परिवर्तन बिना संघर्ष किये चुटकियों में नही आ सकता। हमारे लाइब्रेरी मूवमेंट की शुरुआत साथ में पढ़ने से हुई थी और अब हम साथ में खाना खा रहे हैं। जहाँ तक इसके रिस्पॉन्स की बात है तो वह कमाल का आ रहा है। बच्चे अपने अधिकारों को जान रहे हैं, जाति, धर्मं, जेंडर, यौनिकता और भेदभाव पर खुल कर बातें कर रहे हैं। यह दुनिया तभी बदल सकती है जब अलग-अलग समुदाय के बीच रोटी- बेटी का रिश्ता होगा और हम फ़िलहाल रोटी का रिश्ता बनाने में लगे हुए हैं।
हम सब जानते हैं कि ऐसे सभी कामों के लिए पैसा बड़ा फैक्टर है, पुस्तकालय खड़ा करने की जगह से लेकर, उसे चालू रखने, उसके मेंटेनेंस के लिए, उसमें आवश्यक संसाधनों को जुटाने के लिए पैसे चाहिए। इन चुनौतियों के बारे में हमें बताएं।
उत्तर:- लाइब्रेरी मूवमेंट की सबसे बड़ी चुनौती फंड्स को लेकर है। हमारे जैसे ग्रामीण इलाके में चल रहे लाइब्रेरी मूवमेंट की सबसे बड़ी कमी यह है कि हम इंग्लिश में अपनी बात नही रख पाते। लॉबी न होने की वजह से हमें क्राउड फंडिंग भी नही मिल पाता है। जबकि कुछ लोगों को बस लॉबी और इंग्लिश में बातें करने की वजह से लाखों का फंड्स मिल रहा है। और एक बात हमारे अल्पसंख्यक और एलीट न होने की वजह से फंड्स मिलने में परेशानियाँ आ रही हैं। एक बार तो हमें सिर्फ इसलिए फंड्स के लिए मना कर दिया गया क्योंकि हम अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं। इसलिए हमारे लिए चुनौतियाँ और बढ़ जाती हैं। फ़िलहाल तो हमारा लाइब्रेरी मूवमेंट कुछ दोस्तों के छोटे-छोटे डोनेशन की मदद से चल रहा है। लेकिन इस तरह कितने दिनों तक चल पायेगा यह कहना मुश्किल है। मैं बस सभी से यही कहता हूँ कि सिर्फ़ लाइब्रेरी मूवमेंट की तारीफ करने से या बधाई, शुभकामनाएं देने से कुछ नहीं होने वाला है, लाइब्रेरी मूवमेंट को जिंदा रखने में सबको अपना सहयोग देना पड़ेगा।
बीते दिनों वरुण ग्रोवर ने आपकी लाइब्रेरी के लिए अपील की थी, उस अपील का कैसा असर रहा? इसके साथ ही हम यह भी जानना चाहेंगे कि हमारे आसपास विश्वास की इतनी कमी क्यों है, अपने आसपास की सुंदर चीजों को देखने के नज़र की इतनी कमी क्यों है और बहुत साफ शब्दों में कहूँ कि हम एक दूसरे को आगे क्यों नहीं बढ़ाना चाहते हैं?
उत्तर:- कच्चे मकान से शुरू हुआ लाइब्रेरी मूवमेंट आज 2 पक्के मकानों में चल रहा है। अब तक के इस खूबसूरत सफ़र में कई लोगों का साथ मिला है। सच कहूँ तो एक समय पर हमारा लाइब्रेरी मूवमेंट लगभग ख़त्म होने पर था। हमारी पूरी टीम बिखर चुकी थी लेकिन वरुण ग्रोवर की अपील ने हमारे लाइब्रेरी मूवमेंट में एक नई जान फूंकी। उनके अपील के बाद लोगों ने हमें गंभीरता से लेना शुरू कर दिया। उनका वह अपील हमारे बहुत काम आया है। उनका हम तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। और जहाँ तक आगे बढ़ने से रोकने की बात है तो इसके कई कारण हैं। जाति, धर्म, वर्ग और आप किस पृष्ठभूमि से आते हैं – यह बहुत मायने रखता है। मैंने पहले ही कहा है हमारा संघर्ष सिर्फ लाइब्रेरी चलाना नहीं है, बल्कि हर उस चीज को चुनौती देना है जिसे यथास्थितिवाद ने जकड़े रखा है। उदाहरण के लिए कहूँ तो हमारे जिले के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी हमारे काम को बस इसलिए बर्दाश्त नही कर पा रहे हैं कि उन्हें लगता है 25-30 साल के लड़के ये काम कर रहे हैं जिसकी चर्चा बाहर भी हो रही है। इसलिए वे लगातार हमारे लाइब्रेरी मूवमेंट के प्रति उदासीन बने हुए हैं। अपनी उदासीनता से वे हमें मारना चाह रहे हैं। खैर, वे बड़े मासूम लोग हैं जो अभी हमारी दृढ़ता से वाकिफ नहीं हैं।
इन चुनौतियों के बीच खुद को लड़ने के लिए बचाए रखना भी एक बड़ी चुनौती है। आप इस बातचीत के माध्यम से हमें यह भी बताएं कि समाज को बेहतर बनाने कि अपनी ज़िद को, वो भी तब जबकि समाज इतना यथास्थितिवादी बना हुआ है, खुद को बेहतर नहीं करना चाहता, आप कैसे बचाए हुए हैं
उत्तर:- सच कहूँ तो इसका कोई सही-सही जवाब नहीं है मेरे पास। लाइब्रेरी मूवमेंट के अभी तक बचे रहने का सबसे बड़ा कारण लाइब्रेरी में आ रहे बच्चे हैं। लाइब्रेरी के रूप में बच्चों में एक उम्मीद जगी है और हम ये उम्मीद उनसे छीन नही सकते। अभी तक का सफ़र हमारे लिए बहुत ही मुश्किल भरा रहा है और मुश्किलें रोज़ बढ़ती ही जा रही हैं। अगर मैं अपनी व्यक्तिगत बात करूं, तो मेरे भीतर इस ज़िद के बचे रहने की वज़ह यहाँ आने वाले बच्चों की मोहब्बत, कविता, कुछ प्यारे दोस्त और परिवार का साथ है। वरना कई बार तो ऐसा होता है कि सब कुछ छोड़ कर भाग जाने को दिल चाहता है। पाश की पंक्ति “सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना” बुरे से बुरे वक़्त में भी टिके रहने की प्रेरणा देता है। एक बात और शायद आपको यह बात थोड़ा फनी लगे पर इमरान खान साहब का एक मीम है “ आपने घबराना नहीं है “ – यह हमारी टीम का स्लोगन है। अपने बुरे वक़्त में हम सब मिलकर इसे दोहराते रहते हैं।