प्रोफेसर सत्यपाल सहगल पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के हिंदी विभाग में लंबे समय तक अध्यापन कार्य किया है और अब सेवानिवृत्त हैं। प्रोफेसर सहगल हिंदी कविता के परिदृश्य का एक खास नाम हैं और यह इनका दूसरा और बेहद महत्त्वपूर्ण परिचय है। इसके अलावा, प्रोफेसर सहगल भाषा, साहित्य और संस्कृति के समाजशास्त्र पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणी करते रहे हैं। समय-समय पर इन्होंने शोधपरक आलेख, साक्षात्कार, रिपोर्ताज आदि भी लिखा है। अनुवाद की दुनिया में इनकी विशेष दिलचस्पी पंजाबी से हिंदी अनुवाद में रही है। लाल सिंह दिल की कविताओं पर इनका अनुवाद कार्य खासा महत्त्वपूर्ण है। इसके साथ ही प्रोफेसर सहगल मीडिया, अंतरराष्ट्रीय वैचारिक, साहित्यिक, राजनीतिक माहौल, समाज विज्ञान के विभिन्न विषयों के अध्ययन और सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों में भी दिलचस्पी रखते हैं।
तो आइए, आज ऑफ़ द सिटीजन्स के पेज पर प्रोफेसर सहगल से अकादमिक जगत, साहित्यिक दुनिया, समाज, भाषा के साथ साथ समग्र रूप से जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से हुई बातचीत पढ़ते हैं:
सबसे पहले हमारे पाठकों को अपने बारे में बताएं, अपने जीवन और सफर के बारे में बताएं।
नाम तो आपको पता ही मेरा! मेरा जन्म सुना में हुआ था। यह जगह पंजाब में स्थित है। यह वही जगह है जहां ऊधम सिंह का जन्म हुआ था। मेरे माता-पिता भारत के विभाजन के बाद पश्चिमी पंजाब से भारत आए थे और वहीं सेटल हो गए थे। जब मैं 2-3 वर्ष का था तो हम सब हरियाणा के सिरसा आ गए। सिरसा ही वह जगह है जहां मैंने होश संभाला। वहीं मेरी शुरुआती शिक्षा, कॉलेज की शिक्षा हुई। वहीं हमारा स्थायी निवास बना। अब माता-पिता नहीं है पर वही जगह मेरा स्थायी पता है।
स्नातक के बाद मैं यहाँ पंजाब विश्वविद्यालय एम. ए. करने आया। शुरू में विषयों के चयन को लेकर दुविधा थी, हिन्दी, अँग्रेज़ी और दर्शनशास्त्र के विकल्प मेरे सामने थे, मैंने हिन्दी तय किया। इसका कारण यह भी हो सकता है कि कॉलेज के समय से ही मैं हिन्दी में काफी दिलचस्पी रखता था। मुझे हिन्दी में अच्छे अंक के लिए स्टेट का स्कॉलरशिप भी मिला था। मैं साहित्यिक गतिविधियों में भी हिस्सा लिया करता था, कविताएं भी लिखा करता था, साहित्यिक संस्थाओं से भी जुड़ा था। एकाध का सचिव भी था इसके अलावा मेरे शहर में हिन्दी आन्दोलन का भी प्रभाव था।
यह 70-80 के दशक की बात है। इस शहर में हिन्दी साहित्य का काफी अच्छा असर था, आज भी है। हिन्दी के साथ-साथ पंजाबी, उर्दू का भी। इसीलिए मेरा रुझान इस तरफ हुआ। यहाँ आकर मैंने एम. ए. , एम. फिल किया और फिर पीएचडी की। विश्वविद्यालय में पढ़ाने की सोच और ख्याल या कहें ख्वाब उन्हीं दिनों मेरे साथ चला। एम. ए. में मैंने विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया। ‘साठोत्तरी हिन्दी कविता का समाजशास्त्रीय अध्ययन’ विषय पर मैंने शोध लिखा। मेरे शोध निर्देशक थे प्रोफेसर यश गुलाटी। मैंने सिर्फ इसी विश्वविद्यालय में काम किया है। शुरुआत के दो तीन साल मैंने इवनिंग स्टडीज़ में अस्थायी तौर पर अध्यापन कार्य किया और फिर वर्ष 1989 में इस विश्वविद्यालय में स्थायी तौर पर कार्यभार ग्रहण किया।
आप इतने समय से अकादमिक दुनिया में हैं। विश्वविद्यालय के माहौल को आपने किन अर्थों में बदलते देखा है?
देखिए, बेहतर की संभावना तो सदा होती है। जब शुरू किया था, उस वक़्त से अब तक मुझे लगता है कि हमारा विश्वविद्यालय बेहतरी की ओर बढ़ रहा है। सबसे पहले तो विद्यार्थियों की दृष्टि से। आज के विद्यार्थी ज्यादा सचेत, ज्यादा मुक्त और ज्यादा सूचनाओं से भरे हुए हैं और उनमें से ठीक ठाक संख्या ऐसे विद्यार्थियों की है जिन्हें भाषा और साहित्य में सच्ची दिलचस्पी है। मैं आपको बताऊँ कि हमारे बच्चे विश्व भर की कविताओं को चुन कर लाते हैं। उनके माध्यम से मैंने बहुत सारी अच्छी कविताएं पढ़ ली। इसे देखते हुए मुझे खुशी भी होती है और हैरानी भी होती है।
मैं अध्यापन में ऑडियो विजुअल तरीके अपनाता रहता हूँ। इस दौरान हमारे बच्चों ने एक और अच्छा काम किया कि उन्होंने बहुत सारी महत्त्वपूर्ण कविताओं का पाठ किया, उन्हें रिकॉर्ड किया, उनमें संगीत दिया। यह पूरी कोशिश उनकी दिलचस्पी, उनके प्रयासों को दर्शाती है। पहले बच्चे मुझे रिकॉर्डिंग्स भेजते थे, मैं उनपर टिप्पणी करता था, विद्यार्थी उसे फिर रिकॉर्ड करते थे। बच्चों के ये प्रयास उनकी निष्ठा को दर्शाते हैं। यद्यपि हमारे पास, हमारी व्यवस्था में विद्यार्थियों के रुझानों को जानने के लिए बहुत तैयारी नहीं है, जो कि होनी चाहिए पर मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूँ कि साहित्य, समाज और भाषा को लेकर सघन, गंभीर, सचेत दिलचस्पी रखने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढ़ी है।
हमारे यहाँ हर परिवेश से बच्चे आते हैं। मुझे लगता है जहां व्यक्ति आर्थिक रूप से कमजोर होता है, वहाँ सांस्कृतिक और भावनात्मक रूप से दबा हुआ होता है। आर्थिक कमियाँ सिर्फ शरीर को नहीं बल्कि मस्तिष्क को भी प्रभावित करती हैं। पर आज बहुत सी वर्जनाएँ टूटी हैं और विद्यार्थियों के बहुत से पहलू सामने आते हैं।
मैं उस विचार को पसंद करता हूँ जहां हर व्यक्ति की संभावनाओं का सम्मान किया जाता है। मैं उस जीवनदर्शन को पसंद नहीं करता हूँ जहां कोई महान होता है और कोई साधारण होता है। मुझे हर आदमी महान लगता है। महानता एक निर्मिति होती है, वह कई तरीके से बनती है। हर व्यक्ति कुछ न कुछ करने में सक्षम होता है। यह भी सच है कि जटिल परिस्थितियों में रहते हुए विद्यार्थी अपनी संभावनाओं से दूर चले जाते हैं। मुक्तिबोध के ‘अंधेरे में’ का नायक ही अपनी संभावनाओं से दूर चला गया है क्योंकि उसने अपने आदर्श रूप को पाया नहीं है और यह बहुत सारे लोगों की कहानी है क्योंकि वे अपने आदर्श रूप से दूर हैं।
भाषा अपने समाज में एक वर्ग का विभेद पैदा करती है। क्या हम दोनों भाषाओं को पढ़ते समझते उस वर्ग के भेद को तोड़ नहीं सकते?
भाषाएँ सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं होती। इसमें जीवन के विभिन्न पक्ष शामिल होते हैं। इसके आगे, मैं तो यह कहूँगा भाषाएँ पूरे जीवन को अपने कंधों पर उठा कर चलती हैं। समाज की सत्ता की संरचना में भी भाषाएँ भाग लेती हैं। भाषाएँ समाज का दर्पण ही हैं। चूंकि समाज में सत्ता की संरचना है, अतः वैसे ही भाषा में भी है।
मैं बार बार कहता हूँ कि दुनिया में कोई भी किसी से श्रेष्ठ नहीं है। सभी भाषाएँ एक जैसी हैं। हालांकि सभी भाषाओं में अंतर अवश्य है। सभी पूर्ण हैं, लेकिन अँग्रेज़ी हमारे यहाँ पावरफुल लोगों की ज़बान है और ऐसा इसलिए क्योंकि यह दुनिया के पावरफुल लोगों की ज़ुबान है। जैसे हमारे यहाँ एक सत्ता संतुलन है, वैसे ही वैश्विक स्तर पर भी एक सत्ता का संतुलन है। इस बात से आप इंकार नहीं कर सकते। अगर अँग्रेज़ी अमीरों, शक्तिशालियों की भाषा है तो जिसके पास वह भाषा है उसके पास उसका अहंकार शामिल होगा और दूसरी तरफ के लोगों में उसकी कमज़ोरी भी झलकेगी।
यह चीज़ सिर्फ अंग्रेज़ी के साथ ही नहीं है बल्कि हिन्दी के साथ भी है। पंजाब के लोगों को ज्यादा डर हिन्दी से लगता है।क्योंकि भारतीय संदर्भ में उन्हें हिन्दी सत्ता की भाषा नज़र आती है। जो लोग आदिवासी भाषाओं के लिए काम कर रहे हैं उन्हें वह खतरा हिन्दी से जान पड़ता है। हिन्दी भारत में कैसे फैली, उसके पूरे नैरेटिव में भी सत्ता का संबंध है। सबसे आदर्श स्थिति तो यह होगी कि हमारी सोसायटी स्टेटलेस हो। राज्य है तो सरकार होगी, सरकार होगी तो शक्ति होगा और सत्ता हमेशा ही प्रजा के सामने ताकतवर होगी।
मैं आपको एक उदाहरण देना चाहूँगा।
देरिदा का जेएनयू में व्याख्यान था मैं चला गया, उन्होने अंग्रेज़ी में अपना व्याख्यान दिया। किसी ने सवाल किया आपने अंग्रेज़ी में क्यों बोला आप पावर को तोड़ने की बात पावर की भाषा में कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि पावर का संदर्भ बदलता रहता है। हम पंजाबी की नज़र से देखेंगे तो हिन्दी पावर की भाषा है, हिन्दी की नज़र से देखेंगे तो अंग्रेजी पावर की भाषा लगेगी। हमें लगातार आलोचनात्मक होने की ज़रूरत है, चीज़ों को ठोकते-पीटते रहने की आवश्यकता है ताकि चीज़ों को ठीक किया जा सके|
जैसे जैसे हमारे यहाँ लोकतन्त्र का ज्यादा विस्तार होगा वैसे वैसे इस भेद के खत्म होने की संभावना बढ़ेगी। ऐसा मुझे लगता है। जैसे जैसे हमारे समाज का विकास होगा, स्थितियाँ सुंदर होंगी, समभाव बढ़ेगा।
अंग्रेज़ी के भीतर भी बहुत सारा विभाजन है जो वर्ग का विभाजन तय करता है या जिससे वे तय होती हैं।
सामाजिक आंदोलनों के दौर में आप विश्वविद्यालयों की क्या भूमिका मानते हैं? इसके साथ ही, छात्र राजनीति को लेकर आपके क्या विचार हैं?
सामाजिक आंदोलनों में विश्वविद्यालयों की भूमिका का अपना एक इतिहास रहा है। हमारे बहुत से आंदोलन विचारों से पैदा होते हैं और विचार का जन्म विश्वविद्यालयों में अधिक होता है। आज के युग में विचारों का एक बड़ा हिस्सा शोध पर आधारित है। आज हम ज्यादा ऑब्जेक्टिव तरीके से विचारों को सामने लाते हैं। आज के विचार शोध आधारित हैं और विश्वविद्यालय शोध के गढ़ होते हैं। इन तमाम आंदोलनों में विश्वविद्यालय की भूमिका प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से होती ही है। हाँ इस पर विवाद होता रहता है कि विद्यार्थी विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करें या आंदोलन करें पर जो मुद्दे उनकी शिक्षा को, उनके जीवन को प्रभावित कर रहे हैं उसकी बात विद्यार्थी नहीं करेंगे तो कौन करेगा?
शिक्षा आज के युग में कोई छोटा सा दायरा तो है नहीं। शिक्षा आज हर किसी की जीवन पद्धति से जुड़ी है। मैं यह भी मानता हूँ कि शिक्षा रोज़गार की ट्रेनिंग मात्र तो है नहीं, होनी भी नहीं चाहिए| एक बेहतर और बराबरी वाले समाज के लिए आंदोलन वही करेगा जो शिक्षा ले रहा है क्योंकि शिक्षा का एक नैतिक पक्ष भी होता है। अब सोचिए जो मैं शिक्षा ले रहा हूँ उस शिक्षा के लिए समाज से संसाधन इकट्ठा हुए हैं, तो उस समाज के प्रति हमारा कुछ दायित्व भी है। इसलिए उस समाज से जुड़े मुद्दों में विद्यार्थियों को पार्टिसिपेट करना ही चाहिए।
इसलिए मुझे लगता है कि यह कोई अजीब लगने वाली बात नहीं होनी चाहिए कि विद्यार्थी सामाजिक आंदोलनों में भाग ले रहे हैं। राजनीति आपकी सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करने वाली प्रक्रिया का ही तो नाम है। सवाल करना हल की दिशा में पहला कदम है। इसलिए हर ज़रूरी मसलों पर सवाल उठाते रहना चाहिए। फ़र्क पड़ता है|
विमर्शों के दौर में क्या आप आज की स्थिति को संतोषजनक मानते हैं?
देखो, संतोष कर लेना आगे बढ़ने के रास्तों को बंद कर लेना ही है। संभावनाएं हमेशा रहती हैं। वर्तमान में हम आगे की तरफ देखते हैं पर यदि हम पीछे मुड़कर देखें तो पाते हैं कि हमने विकास किया है। कुछ भी ब्लैक एंड व्हाइट नहीं होता। कुल मिलाकर बहुत सारे मुद्दों पर जागरूकता बढ़ी है। यदि हम इसे टुकड़ों में बाँट कर देखें, मसलन दलितों और स्त्रियों के संदर्भ में बात करें तो मुझे लगता है हम आगे बढ़े हैं। यह सच है कि हम जहां पहुंचना चाहते थे, अभी वहाँ नहीं पहुंचे हैं| दूसरी बात हमारा लक्ष्य, हमारा गंतव्य निरंतर परिवर्तनशील है। मैं तो यही कहूँगा कि यदि आप सोचते हैं, बात करते हैं तो असर डालते हैं और असर डालते रहिए| आप कोशिश कीजिए कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस बारे में बात करें, सोचें, यकीन जानिए, फ़र्क ज़रूर पड़ेगा। प्रयास करते रहिए, परिणाम अवश्य निकलेगा|
भाषा, साहित्य को आप किसी देश की सामाजिक संरचना में कहाँ पाते हैं?
चलिए एक मिनट को सोचते हैं कि सभी कला रूपों को नष्ट कर देते हैं, सिर्फ़ विज्ञान पढ़ते हैं, सोचिए क्या होगा। मैं ऐसी स्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकता। जीवन कलाओं के बिना जीवन नहीं रहेगा। भाषा और साहित्य सिर्फ़ पाठ्यक्रम की सामग्री नहीं है| भाषा, साहित्य, कला लोगों के जीवन में हर वक़्त उपस्थित रहते हैं। न सिर्फ़ अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में बल्कि लोगों के सुख-दुख के निजी क्षणों के साथी के रूप में|
मिथक और इतिहास को आप कैसे देखते हैं?
मैं मिथक और इतिहास को एक नहीं मानता। सभी अपनी शिक्षा से शिक्षित होते हैं। मेरी शिक्षा में प्रमाण चाहिए। जो लोग मिथक और इतिहास को एक मानते हैं, मेरा उनसे भी कोई ऐतराज़ नहीं है। मिथक हमारे यहाँ जीवन के अस्तित्व का, जीने का जो तनाव है, उससे मुक्ति पाने का एक तरीका है। मैं यह भी मानता हूँ कि बौद्धिकता ने जो तर्क का आग्रह किया है, उसने लोगों को थोड़ा अकेला कर दिया है। मैं समझता हूँ आधुनिकता के प्रोजेक्ट में भी कहीं कुछ गैप है। दूसरा यह कि जिस चीज से जिसको जो संतुष्टि मिलती है, उसे वो करने देना चाहिए तब तक जब तक कि वह किसी और को नुकसान नहीं पहुंचा रहा हो। अगर लोग जिन कहानियों में विश्वास करते हैं, उनसे अन्याय नहीं बढ़ता, असमानता नहीं बढ़ती तो उन्हें उन कहानियों को मानने देना चाहिए और यदि असमानताएं बढ़ती हैं, अन्याय बढ़ता है तो उसे यकीनन चैलेंज करना चाहिए। हमें निश्चित तौर पर आँखें खुली रखकर बिना किसी पूर्वग्रह जीवन में विवेकपूर्ण तरीका अपनाना चाहिए।
अपने पेशेवर अकादमिक जीवन से इतर अपने साहित्यिक सफर के बारे में भी थोड़ा बताइए।
कविता स्कूली दिनों से लिखता रहा हूँ। पर मैं कविताएं प्रकाशित किए जाने को लेकर उतना सचेत नहीं हूँ। इसीलिए जितनी कविताएं प्रकाशित हुई हैं, उनसे कहीं ज्यादा अप्रकाशित हैं। यह सिलसिला बदस्तूर ज़ारी है।
आप जीवन जीने का साहस और संबल कहाँ से पाते हैं?
मुझे संबल इस बात से मिला है कि मैंने धीरे-धीरे अपने आप को दूसरों के दिए हुए सत्य से अलग किया और अपने लिए सत्य अर्जित करने का प्रयास किया। दूसरी बात यह कि मैंने कभी भी अपनी मूल प्रवृत्ति को दबाया नहीं। मैं उसे अच्छे या बुरे में बाँट कर नहीं देखता। हमारी ट्रेनिंग होती है अपनी मूल प्रवृत्ति को दबाने की, इसीलिए हम अपने स्वभाव को पहचान नहीं पाते, उसे जी नहीं पाते जबकि वही सबसे ज़्यादा ज़रूरी है।
अपने पाठकों को, युवाओं को क्या कहना चाहेंगे?
पहली बात तो यह कि मैं खुद को मानसिक तौर पर बहुत युवा मानता हूँ। बहरहाल मैं यही कहूँगा कि अपने स्वभाव को जिएं, अपने स्वभाव को लेकर गिल्टी न फ़ील करें। अपने मूल स्वभाव को पहचानें, उसके अनुसार जीने की कोशिश करें| हमेशा याद रखें कि आपमें पूरी क्षमता और संभावना है। साथ ही, यह कहूँगा कि जो सुख गिरे हुओं को उठाने में है, वह सुख वास्तविक है। होने को और भी सुख हो सकते हैं, पर वे क्षणिक होंगे। यह सुख बहुत देर तक रहता है। जो निराश हैं, हताश हैं, असफल हैं, उनकी सहायता को हमेशा तैयार रही। यह बहुत खूबसूरत चीज़ है। इसे आज़मा कर देखिए|
बहुत बहुत शुक्रिया सर! ऑफ़ द सिटीजन्स टीम आपके स्वस्थ, सक्रिय रचनात्मक जीवन की शुभकामनाएं देता है और यह कामना करता है कि आप उस दीर्घकालिक सुख को पाते रहेंगे और दूसरों को भी अपने सहज स्वभाव को पहचानने को प्रेरित करते रहेंगे।