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आइए, आज कथाकार रेणु के जन्मदिन पर उनकी कहानी ठेस पढ़ते हैं

04 मार्च 1921 को अररिया, बिहार के औराही हिंगना में जन्मे फणीश्वर नाथ रेणु मैट्रिक पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बीएचयू गए, मगर 1942 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आह्वान पर उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. स्वभाव से क्रांतिकारी रेणु ने देश में आपातकाल लगने पर पद्मश्री और बिहार सरकार की तरफ से मिलने वाले ₹300 पेंशन को लौटा दिया था.

ज़िन्दगी को भी प्यार की दरकार है…

हम स्वास्थ्य की बात करते तो हैं पर हम स्वास्थ्य को लेकर कितने संजीदा और कितने संवेदनशील हैं, यह भी सोचने की हमें ज़रूरत है। एक समस्या हमारे साथ यह भी है जो चीज़ें हमें दीखती नहीं, हम उनके होने की संभावना तक को नकार देते हैं। हालांकि ऊपर कही अपनी ही बात पर यदि फिर से ठहर कर सोचूं तो पाती हूं कि ऐसा नहीं है कि वे चीज़ें दीखती नहीं हैं। यहाँ यह कहना ज़्यादा सही और बेहतर होगा कि हमने देखने समझने के लिए एक अलग घेरा, एक अलग दायरा बनाया हुआ है और उसके बाहर की चीज़ें हमें असली ही नहीं लगतीं इसलिए हम बार बार उसे अनदेखा करते हैं।

जनता का आदमी | आलोक धन्वा की 1972 में प्रकाशित हुई यह कविता

2 जुलाई सन् 1948 में बिहार मुंगेर जिले में जन्मे आलोक धन्वा की पहली कविता ‘जनता का आदमी’ 1972 में ‘वाम’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। 

सुंदर सुबह की उम्मीद को कामिल करने को प्रयासरत : शबनम

शबनम 2015 से वीडियो वॉलेंटियर के साथ जुड़ी हुई हैं और समृद्ध सांस्कृतिक-राजनीतिक विरासत वाले वाराणसी क्षेत्र में बतौर वीडियो एक्टिविस्ट काम कर रही हैं। वे अब तक कई महत्वपूर्ण विषयों मसलन सफ़ाई, स्वास्थ्य, शिक्षा, जेंडर आदि पर रिपोर्टिंग कर चुकी हैं। स्त्री शिक्षा के लिए वे अतिरिक्त प्रयास कर रही हैं और अपने समुदाय में उन्होंने एक डिस्कशन क्लब बनाया हुआ है जिसके माध्यम से वे लोगों को शिक्षा के प्रति जागरूक बना रही हैं क्योंकि वे इस बात में यकीन करती हैं कि शिक्षा के ज़रिए ही बड़े बदलाव लाए जा सकते हैं।

तय करो किस ओर हो तुम?

मैं पितृसत्ता के किसी भी औज़ार के साथ नहीं हूँ, पर मैं शिक्षा के हक़ में हूँ क्योंकि मुझे पता है कि इसी शिक्षा से हम एक दिन पितृसत्ता के उन तमाम औजारों को तोड़ डालेंगे। मैं शिक्षा के अपने हक़ को मांगती उस लड़की के साथ हूँ। अब, तय आपको करना है कि आप आखिर किस ओर हैं?

समाज की तमाम क्रूरताओं के बीच धनंजय के संघर्ष की कहानी | In Conversation with Dhananjay

धनंजय चौहान को अपनी पहचान की वज़ह से जो प्रताड़नाएं झेलनी पड़ी हैं, वो इस समाज के चरित्र को नुमाया करती हैं। हमारे समाज की तमाम क्रूरताओं के बीच धनंजय ने अपनी पहचान के लिए लड़ना ज़रूरी समझा और उसे हासिल भी किया।

हम लड़ेंगे साथी… जब तक दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाकी है

जेंडर बराबरी, लैंगिक विमर्शों की तमाम बहसों के बीच हम सभी एक रॉन्ग वर्ल्ड में जी रहे हैं, जिसे राइट बनाने की ज़िम्मेदारी बेशक हम सभी की है और इसके लिए ज़रूरी है कि हम ख़ुद के भीतर एक बेहतर समझाइश पैदा करें और उसे हर रोज़ बेहतर करते रहें। हमारी लर्निंग  और अनलर्निंग की कोशिशें साथ साथ चलती रहें- यह भी बहुत ज़रूरी है। 

गाँव गाँव पुस्तकालय के खूबसूरत सपने को आकार देता सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन

आज सिटिज़न्स टुगेदर के प्लेटफार्म से हम जिस गुफ़्तगू में शामिल हो रहे हैं, वह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि हम आज ऐसे शख्स से बातचीत कर रहे हैं, जिन्होंने अपने आस पास की दुनिया को बेहतर बनाने के लिए अनिश्चितताओं का चुनाव किया, जो यकीन करते हैं कि दुनिया को समझने का, उसे बेहतरी से बदलने का रास्ता किताबों से होकर गुज़रता है। ‘गाँव गाँव पुस्तकालय’ का एक खूबसूरत सपना वे सिर्फ देख नहीं रहे उसे सच बनाने की मुहिम में लगे हुए हैं। सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन उनके बेहतरीन प्रयासों का एक खूबसूरत परिणाम है।

World Braille Day | नेत्रहीन छात्रों के हर अधिकार का हनन- ना स्कूल, ना ब्रेल प्रेस और ना ही सरकारी भर्ती में आरक्षण

हम नेत्रहीन लोग हैं. सरकार के लिए हम वोट बैंक नहीं हैं. इस वजह से नेत्रहीनों के प्रति सरकार असंवेदनशील रवैय्या अपना रही है. हमारे पढ़ाई के हर मुमकिन रास्ते को सरकार ने बंद कर दिया है. हमारी किताब भी छपवाना सरकार के लिए बहुत बड़ा पहाड़ जैसा काम लगता है. ऐसे में हम कहां जायें?